Tuesday, November 4, 2008

अनेरुआ बेटा - जगदीश प्रसाद मण्डल



तेसरि साँझ। अन्हरियाक चौठ रहने चान तँ नञि उगल छै मुदा पूब दिशि धाही छिटकए लगल छलै। सुनसान अन्हार देखि किछु क्षण पहिनहि एकटा कुमारि, समाजमे लोक-लाज बँचबैक खियालसँ दस दिनक जनमल बच्चाकेँ रस्ताक किनछरिमेे राखि अढ़े-अढ़ आंगन चलि गेलि। बच्चाकेँ नओ दिन तँ झाँपि-तोपि कऽ बीमारीक बहाना बना रखलक। मुदा घटना खुलैक दुआरे दसम दिन जी-जाँति कऽ फेकलक नहि, रस्ताक कातमे ओरिया कऽ रखि देलक। पाँचे-सात मिनटक पछाति गंगाराम हाटसँ घर अबैत रहए। जनमौटी बच्चाक जे रुदन गंगाराम सुनलक, एकाएक ओकर पएर अस्थिर भऽ गेलै। बीच बाटपर ठाढ़ भऽ ओ अवाज अकानए लगल। ई अवाज तँ कोनो जानवर वा जन्तुक वा चिड़ैक तँ नहि थिक। मनुक्खक बच्चाकेँ बोली बुझि पड़ैत अछि। मुदा एहिठाम मनुक्खक बच्चाकेँ बोली भऽ कोना सकैत अछि? तहूमे ककरो देखबो ने करै छिऐ। बाँसक गारल खूँटा जेकाँ गंगाराम बीच बाटपर ठाढ़। कने काल ठाढ़ रहि ओ आस्ते-आस्ते बच्चा दिशि पएर बढ़बए लगल। झल-अन्हार रहने अधिक दूर देखबो ने करैत छल। खेतमे जेना कीड़ी-मकोड़ी। क्यो अपन माए-बापकेँ सोर पाड़ैत तँ क्यो अरामसँ गीत गबैत। तहिसँ सौँसे बाध अनघोल होइत रहै। बच्चाक लग पहुँचि गंगाराम बैसि बच्चाकेँ निहारै लगल। एकटा मन कहलकै- ई तँ मनुक्खक बच्चा छी। मुदा दोसर मन कहलकै- एहिठाम बच्चा आएल कोना? तरकारीक झोरा दूबिपर रखि, दहिना हाथ बच्चाक देहपर दऽ हसोथै लगल। देह सिहरि गेलै। रोंइयाँ-रोंइयाँ ठाढ़ भऽ गेलै। मुदा मनमे खुशी उपकलै। मन थीर कऽ बच्चाकेँ दुनू हाथे उठा लेलक। उठा कऽ बच्चाकेँ पेटमे साटि, वामा हाथे बच्चाकेँ थाम्हि दहिना हाथे खढ़-पात पोछए लगल। बच्चा ओहिना पूर्ववते कनैत रहए। खढ़ पोछि गंगाराम कान्हपर सँ गमछा उतारि बच्चाकेँ लपेट लेलक। तरकारीक झोरा कान्हमे टाँगि छाती लगौने बच्चाकेँ अपना ओहिठाम अनलक।
आंगन आबि गंगाराम हँसैत घरवालीकेँ कहलक- ‘‘आइ भगवान खुश भऽ एकटा बेटा देलनि।’’
पतिक बात सुनि अकचकाइत भुलिया लगमे दौगल आबि पतिक कोरासँ बच्चा अपना कोरामे लैत पुछलक- ‘‘कतए ई बच्चा भेटल ? आ-हा-हा, बच्चा तँ बड़ दीव अछि।’’
‘‘हाटसँ घुमैत काल बाटपर भेटल। एकर सेवा करु। जँ अप्पन बनि कऽ आएल हएत तँ जीवे करत नञि तँ जहिना रस्ते-रस्ते आएल तहिना चलि जाएत।’’
पतिक बात सुनि भुलिया मने-मन सोचए लागलि जे अपना तँ ने गाए अछि आ ने बकरी, जेकर दूध पिया बच्चाकेँ पालितहँु। अपने तँ दूध हेबे नञि करत किएक तँ बुढ़ाढ़ीमे सभ अंग सुखा गेल। निराश मनमे भुलियाक आशा जगलै। मनमे अएलै जे अपन ने छाती सुखि गेल मुदा पितिऔत दियादनी तँ चिलकौर अछि। मन पड़ितहि भुलिया भगवानकेँ धन्यवाद दैत बाजलि- ‘‘जहिना भगवान सुखाएल बोनमे फूल फुलौलनि तहिना ओकर अहारोक ओरियान तँ वएह करथिन।’’
पचास बर्खक गंगाराम। अड़तालीस बर्खक भुलिया। मुदा जते थेहगर गंगाराम तहिसँ कम भुलिया। अड़तालीस बर्खक भुलिया साठि बर्खसँ उपर बुझि पड़ैत छलि। झुनकुट बूढ़ि जेकाँ। बूढ़िक सभ लक्षण भुलियामे आबि गेल छलै मुदा कोरामे बच्चा देखि भुलियाक शरीरमे जुआनीक खून दौड़ए लगलै। नव उत्साह, नव-जीवन। आनन्दसँ विह्वल नजरिसँ भुलिया पतिकेँ देखैत आ गंगाराम पत्नीकेँ। दुनूक मनमे खुशीक हिलोर उठैत रहै। पानिक गुब्बारा जेकाँ खुशी मँुहसँ निकलए चाहैत रहै। बच्चाकेँ चुप रहै दुआरे भुलिया अपन छातीमे बच्चाकेँ लगा लेलक। कनी काल बच्चा छातीमे लगि मुँह बन्न केलक मुदा दूध नहि भेटने फेर ओहिना कानए लगल।
गंगारामक घरक बगलेमे पितिऔत भाए रुपलालक घर। बच्चाकेँ छाती लगौने भुलिया रुपलालक आंगन पहुँचलि। रुपलालक स्त्री कबूतरी अपना बच्चाकेँ दूध पीयबैत रहए। तीन मासक बच्चा रहै कबूतरीक। भुलियाक कोरामे बच्चाकेँ कनैत देखि अपना बच्चाकेँ ओछाइनपर सुता भुलियाक कोरासँ बच्चाकेँ कोरामे लैत दूध पीयबए लागलि। भुखल बच्चा, हपसि-हपसि दूध पीबए लगल। बच्चाकेँ दूध पीबैत देखि भुलिया कबूतरी दियादनीकेँ कहलक- ‘‘भगवान तोरा सात गो बेटा आउरो देथुन।’’
  भुलियाक बातकेँ हँसीमे उड़बैत कबूतरी बाजलि- ‘‘चारियेटा मे तँ अकछि गेलौं आ सातटा आरो पोसब पार लागत। अपन असिरवाद घुमा लौथु। जेतबे अछि तेकरे निमेरा होए तेहीसँ बहुत हएत। फेर बात बदलैत बाजलि- दीदी, बुढ़ाढ़ियोमे जे हिनका बेटा भेलनि से केहेन पोरगर छनि। हिनके जेकाँ आँखि, मुँह, नाक लगै छनि। भैया जेकाँ किछु ने बुझि पड़ैए।’’
  भुलिया- ‘‘सभ दिन तू एक्के रंग रहि गेलैं। कहियो तोरा बजै-भुकैक लूरि नञि भेलौ। जेठ-छोटक विचार तँ बुझबे ने करै छीही। ककरो किछु कहि दै छीही। कोनो गत्तरमे लाज-सरम तँ छौहे नै।’’
  हँसैत कबूतरी दोहरबैत बाजलि- ‘‘एँह दीदी, हिनका अखन की भेलनिहेँ, एकटा के कहाए जे जोड़ो लगि जेतनि।’’
  कबूतरीक बातसँ भुलियाकेँ तामस नै उठै। बच्चाक आनन्द हृदएकेँ पानि जेकाँ कोमल बना देने छलै। भुलिया- ‘तोरे भैयाकेँ हाटसँ अबै काल रस्तामे ई बच्चा भेटलै।’’
  कबूतरी- ‘‘भेटुआ बच्चाक मँुह हिनका मुहसँ किअए मिलै छै। ई हमरासँ छिपबै छथि।’’
  खौंझा कऽ भुलिया बाजलि - ‘‘अच्छा हो, हमरे भेल। आब तँ मनमे सबुर भेलौ।’’
  बात बदलैत कबूतरी बाजलि- “दीदी, जहिना एकटा बच्चाकेँ दूध पीयबै छी तहिना अहू बच्चाकेँ दूध पिया देबनि। कोनो कि हमरा घरमे मौसरी नै अछि जे बच्चाकेँ दुधकट्टू हुअए देबनि। लोकेक काज समाजमे लोककेँ होइ छै किने। हिनका अन्हार घरमे दीप जरलनि। तइसँ कि हमरा खुशी नञि होइए।’’
  कबूतरीक बात सुनि भुलियाक मन गद-गद भऽ गेलै। भुखाइल बच्चाकेँ पेट भरिते निन्न आबि गेलै। बच्चाकेँ बिछौनपर सुतबैत कबूतरी बाजलि- ‘‘दीदी, बच्चाकेँ एतै रहए देथुन। राति-विराति जखैन भुख लगतै पिया देबै।’’
  ‘‘बड़बढ़िया’’ कहि भुलिया अपना आंगन आबि पतिकेँ कहलक- ‘‘आब बच्चा जीबे करत। बड़ दूध गोधनपुरवालीकेँ होइ छै। दुनू बच्चाकेँ पालि‍ लेत।’’
  बच्चाक लेल गंगारामक मन कनैत। मुदा भुलियाक बात सुनि मन हरिया गेलै। मनमे एकटा शंका जरुर उठलै- ‘‘बच्चाकेँ अपना अंगना किअए ने नेने अएलहुँ? आन तँ आने छी।’’
  पतिकेँ चोहटैत भुलिया कहलक- ‘‘अहाँ पुरुख छी, तँ की बुझबै? माएक की मासचर्ज होइ छै से स्त्रीगणे बुझि सकैए। जे माए एक दिन बच्चाकेँ छातीसँ लगा लेत ओ जिनगीमे कहियो ओहि बच्चाक अधला नै सोचत।’’
  गंगाराम चुप भऽ गेल। मुदा एकटा बात मन पड़लै। बाजल- ‘‘अपने दुनू गोरे ने ओकर बाप-माए हेबै, तेँ कोनो नाम तँ रखि देबै कि ने।’’
  पतिक बात सुनि भुलियाक मनमे छठियारक दृश्य आबि गेलै। मुस्की दैत बाजलि- ‘‘आन बच्चाकेँ तँ स्त्रीगण सभ मिलि कऽ नाओँ रखै छै। मुदा से तँ अइ बच्चाकेँ नै भेलै। अपने दुनू गोरे मिलि कऽ नाम रखि दियौ।’’
  भुलियाक विचार सुनि पति बिहुँसैत बाजल- ‘‘मंगल नाम रखि दिऔ।’’
सात मासक उपरान्त बच्चाक मुँहमे दाँतो जनमए लगल आ ठाढ़ भऽ कऽ डेगा-डेगी चलौ लगल। अन्न सेहो चाटए लगल आ पानि सेहो पीबए लगल। बच्चाक सिनेह एते अधिक दुनू परानीमे रहै जे कखनो आँखिक परोछ होअय, से नहि चाहए। भुलिया बोइन करब छोड़ि देलक। अंगना-घरक काज सम्हारि साबेक जौर ओसारेपर बैसि बॉंटए लागलि। ओकरे बेचि-बेचि दू पाइ कमा लैत छलि। अपना तँ साबे नहि रहै मुदा अधियापर बँटैक लेल गाममे साबे भेटै। दुनू परानी गंगारामकेँ एते उत्साह बढ़ि गेलै जते दस बर्ख पहिने छलै। भरि-भरि दिन काज करैत मुदा थाकनि बुझिये ने पड़ै। भुलियाकेँ जैखन मंगल माए कहए तैखन आनन्दसँ ओ उन्मत भऽ जाए।
पाँच बर्खक अवस्थामे मंगलक नाम पिता स्कूलमे लिखा देलक। मंगल पढ़ए लगल। पाँचे किलास तक पढ़ाइ गामक स्कूलमे होइत रहै। पँचमा तक मंगल पढ़ि लेलक। दस बर्खक भइयो गेल। मुदा दुनू परानीमे गंगारामक देह एत्ते अव्वल भऽ गेलै जे काज करैले लोक अढ़ौनाइ छोड़ि देलकै। कहुना-कहुना दुनू परानी जौर बाँटि-बाँटि गुजर करए। जिनगी भारी लागए लगलै। मुदा दसे बर्खक मंगलमे ज्ञानक उदए कनी-मनी भऽ गेलै। जहिना बच्चेमे हनुमान बाल सुर्जकेँ गीरि गेल छलाह, तहिना। मंगल बापकेँ कहलक- ‘‘बाबू अहाँ दुनू गोरे काज करै जोकर नै रहलौं। हमरा मन होइए जे चाहक दोकान खोली। अपने डेढ़ियापर एकटा एकचारी बान्हि दिअ, ओहिमे हम दोकान खोलब।’’
गंगारामक मनमे जँचलै। मुदा चाह तँ गामक लोक पीबैत नहि अछि, तखन दोकान चलतै कोना? मुदा तइयो एकचारी बान्हि देलक। बाड़ीमे एकटा जीमरक गाछ रहै ओकरा पच्चीस रुपैयामे बेचि, चाह बनबैक बरतन-वासन मंगल कीनि लेलक।
चाहक दोकान मंगल शुरु केलक। नव वस्तुक दोकान गाममे। मुदा पहिल दोकानकेँ तँ मोनोपोली माने एकाधिकार होइ छै। शुरुमे तँ गामक लोक नव चीज पेय बुझि सेहन्ते पीनाइ शुरु केलक। मुदा धीरे-धीरे दोकान जमि गेलै। जइसँ एत्ते कमाइ हुअए लगलै जे कहुना-कहुना गुजर चलऽ लगलै। तीन साल बीतैत-बीतैत दुनू परानी गंगाराम मरि गेल। जाधरि गंगाराम जीबैत छल ताधरि गाममे मंगलक प्रति कोनो तरहक घिरना नञि छलै मुदा गंगारामक मरलाक बाद लोकमे धिरना जागए लगलै। मुदा तइयो दोकानक बिकरीमे कमी नञि अएलै, किएक तँ समाजक लोक चाह-पानि पीयब शुरु कऽ देने छल।
चाहक दोकान केलाक उपरान्तो मंगलक मनमे पढ़ैक जिज्ञासा जीबिते रहै। खाइ-पीबैसँ जे पाइ उगड़ै ओइसँ ओ किताब, कागज, कलम कीनि-कीनि पढ़बौ करए आ लिखबो करै। मरै काल गंगाराम मंगलकेँ जन्मक इतिहास सुना देने रहै। जाहिसँ मंगलमे समाजक कुरीति, कुव्यवस्था जे करमी लत्ती जेकाँ छाड़ने अछि, ओहि बिन्दुपर नजरि पहुँचि गेल छलै। तेँ किताबक अध्ययनक संग-संग समाजोक बेबहारक अध्ययन करए लागल। चाहक दोकान चलबैत तेँ दस गोटेक संग गप-सप्प  करैक लूरि सेहो सीखि लेलक। ततबे नहि रुपचन गामक खिसक्कर। मुदा बड़ गरीब। साँझू पहरकेँ एक झोँक चाहक बिकरी खूब होइ, बादमे गहिकी पतरा जाइ। जखन गहिकी पतरा जाइ तखन रुपचन मंगलक दोकानपर अबै। दू गिलास चाह पिया मंगल रुपचनक दिमाग साफ कऽ दै। दू-चारिटा पछुऐलहा गहिकियो रहै, तहि बीच रुपचन पुरना खिस्सा उठाबै। एक घंटा, दू घंटा, तीनि-तीनि घंटा तक रुपचन खिस्सा कहै। खिस्सा सभ दिन बदलि-बदलि कऽ कहै। कहियो राजा-रानी, तँ कहियो रानी सरंगा तँ कहियो रजनी-सजनीक। कहियो गोनू झा तँ कहियो डाकक। कहियो अल्हा-रुदल तँ कहियो दीना-भद्री। कहियो लोरिक तँ कहियो सलहेसक।
एहि रुपे मंगलक बुद्धिक बखारीमे किताबक ज्ञान, समाजक ज्ञान आ खिस्साक ज्ञान जमा हुअए लगलै। रातिमे जे खिस्सा सुनै ओ दिनमे जखन समए भेटै, लिखि लिअए। लिखैत-लिखैत पाँतियो सोझ-साझ हुअए लगलै आ जिज्ञासो बढ़ए लगलै।
एक दिन बेरि टगैत, एक गोटे मंगलक ऐठाम चाह पीबए आएल। देह-दशासँ बिल्कुल साधारण। हाथमे एकटा चमड़ाक बैग। ओ आदमी ‘भारत जागरण’ पत्रिकाक सम्पादक। गामक दशा-दिशाक अध्ययन करैक लेल गाम दिशि आएल छल। मंगलसँ गप-सप्‍प करैत ओ सम्पादक हेरा गेलाह। उन्मत्त भऽ गेल। जेना मंगलक हृदए आ सम्पादकक हृदए एक ठाम भऽ कतौ सफरमे निकलल हुअए, तहिना।
  भक्क टुटितहि दुनू गोरे हँसए लगल। सम्पादक कहलखिन- ‘बौआ, अहाँ चाह बनाउ। एखन धरि हमहुँ आइ चाह नै पीने छलौं। आइ हम रहब। निचेनसँ गप-सप्‍प करब।’
  मंगल चाह बनबए लगल। चाह बनल। दुनू गोटे पीलक।
  खेला-पीलाक बाद, रातिमे दुनू गोटे एक्के बिछानपर बैसि गप-सप्‍प करए लगल। जे किछु खिस्सा-पिहानी मंगल लिखने छल ओ हुनका–-सम्पादककेँ- आगूमे रखि देलक। उनटा-पुनटा सम्पादक जी देखए लगलथि। भाषा-शैली तँ नहि जँचलनि मुदा विषए-वस्तु हृदएकेँ पकड़ि लेलकनि। हँसैत बजलाह- ‘‘बड़ सुन्दर वस्तु सभ अछि। एकरे तकैले हम आएल छी।’’
  कहि बैग खोलि किछु पत्रिका आ किछु किताब दैत कहलखिन- ‘‘एहिमे लिखैक तौर-तरीका निर्धारित कएल अछि। एकरा ठीकसँ पढ़ि जे आधार निर्धारित अछि, ओहि अधारपर लिखब। हम सम्पादक छी। मासिक पत्रिका चलबैत छी। अहाँक एक-एक कथा सभ मासक पत्रिकामे छापब। एक कॉपी अहूँकेँ पठा देल करब।’
  तीन-चारि घंटा धरि सम्पादक जी मंगलकेँ बुझबैत रहलखिन। भोरे सुति उठि चाह पीबि ओ चलि गेलाह।
मंगलक कथा पत्रिकामे मासे-मास छापए लगल। मंगलक अनेको पाठकमे एकटा लड़की सेहो। नाम सुनएना। दर्शन शास्त्रसँ एम.ए.मे पढ़ैत। पाँचम मासक पत्रिकामे सम्पादकजी मंगलक परिचएमे एकटा उपन्यासक चरचा सेहो कऽ देलखिन, नाम छलै ‘मरल गाम’। सुनएनाक पिता वकील। सुनएनाक मन ‘मरल गाम’ नाम पढ़ि नाचए लागल। मनमे अाबए लगलै जे हमर देश तँ गामक देश छी। जखन गामे मरल अछि तखन देशकेँ की कहबै? ई विचार सुनएनाक मनमे उड़ी-बीड़ी लगा देलक। जे सुनएना पिताक सोझाँमे भरि मँुह बजैत नहि ओ सुनएना आइ पितासँ डिस्कस करैले तैयार भऽ गेलि।
  कोर्टसँ आबि वकील सैहेब चाह पीबि टहलैले गेलाह। टहलि-बूलि कऽ दोसर साँझमे आबि कौल्हुका केसक तैयारीक लेल फाइल निकाललनि। पत्नी चाह आनि कऽ देलखिन। चाह पीबि, पान खा वकील सहाएब फाइल खोलैत रहथि आकि सुनएना आबि कऽ आगूक कुरसीपर बैसि बाजलि- ‘‘बाबूजी, एकटा सवाल मनमे घुरिया रहल अछि। ओ कने बुझा दिअ?’’
  ‘की?’
  ‘आइ पत्रिकामे पढ़ने छलहुँ जे सचमुच गाम मरल अछि? जँ गाम मरल अछि तँ देश गामक छी। देशकेँ की कहबै?’
  सुनएनाक प्रश्नक गंभीरतापर नजरि नहि दऽ वकील सैहेब कहलखिन- ‘ई साहित्यकार लोकनिक समझ छिअनि, तेँ एहिपर किछु नहि कहि सकै छिअह।’
  ‘साहित्यकारो तँ अही समाजक लोक होइ छथि। हुनको आने लोक जेकाँ जिनगी छनि। तखन ओ एहन विचार किअए लिखलनि?’
  ‘साहित्यकारक बात साहित्यकारे बुझि सकैत छथि। हम तँ बकील छी कानूनक बात बुझै छिऐ। एखन तूँ जा, हम एकटा केसक तैयारी करब।’
सुनएना उठि कऽ चलि गेलि। अपना कोठरीमे बैसि कऽ विचार करए लागलि। जहि देशक गाममे ने पानि पीबैक ओरियान छै, ने खाइक लेल सभकेँ संतुलित भेाजन भेटै छै, ने भरि देह कपड़ा भेटै छै, ने रहैक लेल घर छै, ओहि देशकेँ मरल नै कहबै तँ की कहबै। एखनो लोक सरल पानि पीबैत अछि, कहुनाकेँ किछु खा दिन कटैत अछि, गाछक निच्चाँमे आगि तापि समए बितबैत अछि, हजारो रंगक रोग-व्याधिसँ घेरल अछि, ओहि देशकेँ की कहबै? हजारो बर्खक मनुक्खक इतिहासमे एखनो धरि सरस्वतीक आगमन सभ मनुक्ख धरि नै भेल अछि, ओहि देशकेँ की कहबै? ढेरो प्रश्न सुनएनाक आगूमे ठाढ़ भऽ गेल रहए। मन घोर-घोर हुअए लगलै। अचेत जेकाँ सुनएना कुरसीपर ओंगठि सोचए लागलि। सोचैत-विचारैत अंतमे एहि प्रश्नपर आबि अटकि गेलि जे किताबक भाँज लगा कऽ पढ़ी। मुदा किताब भेटत कत्तऽ। फेर मन एलै जे किताब लिखनिहारे लग पहुँचि किताबक भाँज लगाबी। पत्रिका निकालि लेखकक पता पुरजीपर लिखलक।
  दोसर दिन सुनएना मंगलक भाँज लगबै बिदा भेलि। नओ बजेक समए। भिनसुरका गहिकीकेँ सम्हारि मंगल केतली, टोपिया, ससपेन, गिलास इत्यादि बरतन दोकानक आगुमे रखि, चुल्हिसँ छाउर निकालि चुल्हि निपैत। सुनएना चाहक दोकानपर एहि दुआरे पहुँचल जे एहिठामसँ सौंसे गामक लोकक भाँज लगि सकैए। दोकानपर पहुँचि मंगलकेँ पुछलक- ‘‘एहि गाममे मंगल नामक एक व्यक्ति छथि, हुनकर घर बता दिअ।’’
  अपन नाम सुनि मंगल चौंकि गेल। मुदा चुप्पे रहल। जेना मने-मन गाममे मंगलकेँ तकैत रहए। सुनयनो सएह बुझलक। कनी काल गुम्म रहि बाजल- ‘‘बहीन जी, अगर मंगल एहि गाममे हएत तँ जरुर भाँज लगा देब। मुदा एखन हमरा ऐठाम आएल छी, तेँ बिनु खेने-पीने कोना जाएब? ई तँ मिथिला छिऐ। जहिना घरवारीक लेल स्वागत करब अनिवार्य अछि तहिना तँ अतिथियो लेल।’
  मंगलक बात सुनि सुनएनाक मनमे जेना पियासलकेँ शीतल पानि भेटि जाइत, तहिना भेल। बाँसक फट्ठाक बनौल बेंचपर सुनएना बैसि गेलि। हाथ धोए मंगल सस्पेन अखारि, चुल्हि पजारि चाह बनबए लगल। ब्रेंच परसँ उठि सुनएना चुल्हि लग जाए चाहलक आकि कुर्तीक निचला कोन फट्टीमे फँसि गेलै, जइसँ फटि गेलै। मुदा तेकर चिन्ता नहि कऽ सुनएना मंगल लग बैसि गेल। लगमे सुनएनाकेँ बैसैत देखि पुछलक- ‘मंगलसँ कोन काज अछि?’
  सुनएना- ‘‘मंगल साहित्यकार छथि। हुनकर लिखल एकटा उपन्यास ‘मरल गाम’ छनि। ओहि पोथीक भाँज हम बजारमे लगेलहुँ मुदा कतौ नहि भेटल। तेँ लिखिनिहारेक भाँज लगबए एलहुँ।’’
  सुनएनाक बात सुनि मंगल नमहर साँस छोड़ि बाजल- ‘‘मंगलकेँ अहाँ कोना जनैत छी?’’
  सुनएना- ‘‘हुनकर लिखल कथा हम ‘भारत जागरण’ मे पढ़ैत छी ओहिमे ‘मरल गाम’ उपन्यासक चरचा देखलिऐक। जकरा पढ़ैक इच्छा मनमे भेल। तेँ एलहुँहेँ।’’
  मंगल बुझि गेल। खुशीसँ मन ओलरि गेलै। मनमे अएलै जे पियासलकेँ पानि देब ओहने आवश्यक होइत अछि जेना भूखलकेँ अन्न। मुदा हमरा तँ एक्के काॅपी अछि जे लिखने छी। जँ ई काॅपी दऽ देबै तँ अपन साल भरिक मेहनत चलि जाएत। मुदा नहि देब तँ आरो महापाप हएत। फेर मनमे अएलै जे अपना ऐठाम पढ़ैले दऽ दियै आ कहि दियै जे जहिया हमर दिन-दुनियाँ घुरत तहिया छपाएब। छपेलाक उपरान्त अहाँकेँ देब। ताबे एहिठाम रहि पढ़ि लिअ।’’
  तहि बीच चाह बनल। दुनू गोटे पीलक। चाह पीबि सुनएना बाजलि- ‘‘मंगलक भाँज लगा दिअ।’’
  विस्मित भऽ मंगल बाजल- ‘‘हमरे नाम मंगल छी। हमहीं उपन्यास लिखने छी। मुदा छपाओल नहि अछि। सिर्फ लिखलेहे टा अछि। तेँ हम आग्रह करब जे एहिठाम रहि पढ़ि लिअ। जहिया छपाएब तहिया अहाँकेँ एक काॅपी जरुर देब।’’
  मंगलक बात सुनि सुनएना अचंभित भऽ गेलि। पएरसँ माथ धरि मंगलकेँ निङहारए लागलि। आगिक धुँआ, चुल्हिक कारीखसँ मंगल बेदरंग भेल। देहक वस्त्र परसौतीक वस्त्र जेकाँ, सौँसे देहसँ गरीबी झक-झक करैत। मंगलक बगए देखि सुनएनाक आँखि नोरा गेलै। नोर पोछैत सुनएना बाजलि- ‘‘एहिठाम रहि कऽ हम उपन्यास नहि पढ़ि सकब। किएक तँ कोनो पोथी पढ़ैक मतलब होइत अछि जे ओहि पोथीक विषए-वस्तुकेँ नीक जेकाँ बुझब। से धड़-फड़मे कोना संभव अछि?’’
  सुनएनाक विचारमे गंभीरता देखि मने-मन मंगल सोचए लगल। आत्माक उत्साह बढ़ए लगलै। सुनएना दिशि तकलक। सुनएनाक आँखिमे पढ़ैक भूख जोर पकड़ने देखलक। मनमे एलै जे हमहूँ तँ अनके लेल लिखने छी। तखन छपौलासँ हजारो हाथ जेतै मुदा एखन तँ एक्के हाथ जा रहल अछि। मनमे सबुर अएलै जे कमसँ कम एक्कोटा पढ़निहारक हाथ तँ जाएत। तहि बीच सुनएना बाजलि- ‘‘जहिना हम काॅपी एहिठामसँ लऽ जाएब तहिना पढ़लाक बाद घुमा देब। तेँ पोथी हरेबाक कोनो संभावने नै अछि। एहिठाम रहि पढ़ैमे हमरो लाचारी अछि। लाचारी ई अछि जे भरि दिन तँ हम कतौ रहि सकै छी मुदा सूर्यास्तक बाद घर पहुँचब जरुरी अछि।’’
  मंगलक विचारमे कने स्नेह एलैै। बाजल- ‘‘बड़बढ़ियाँ, हम अहाँकेँ पोथी दऽ दै छी। आगूक बात अहाँ जानी।’’
  हाथमे पोथी अबिते सुनएनाक मनमे खुशी अएलै। एक टकसँ पोथी देखि मंगल दिशि ताकि मुस्किया देलक। मने-मन मंगल सुनएनाकेँ पढैत आ सुनएना मंगलकेँ। सुनएना हँसैत बिदा भऽ गेलि।
सुनएना एम.ए. नीक जेकाँ पास केलक। नारी अधिकारक सर्मथक वकील साहेब। मुदा मन ओतए ओझरा जानि‍ जेतए देखथि जे नारी सिर्फ एक्के-आध बिन्दुपर नहि, जीवनक सभ क्षेत्रमे जकड़ल अछि। जेकरा मेटाएब धिया-पुताक खेल नहि। कठिन संघर्षसँ हएत। कतौ वैचारिक संघर्ष करै पड़त तँ कतौ बलक। एहि विचारमे वकील साहब कुरसीपर बैसि सोचैत रहथि। साँझक समए। पत्नी चाह बनौने एेलखि‍न। टेबुलपर चाह राखि, बगलक खाली कुरसीपर बैसि कहलखि‍न- ‘‘अपना सबहक पढ़ल-लिखल समाजक परिवारमे सुनएना अछि तेँ ने मुदा जँ एहेन बेटी किसानक घरमे रहतै तँ लोक ओकरा एना उन्मुक्त रहए दैतै !’’ चाहक चुसकी लैत वकील साहेब पुछलखिन- ‘‘अहाँ की कहए चाहैत छी, कने खोलि कऽ बाजू।’’
  ‘‘सुनएनाक बिआह कऽ लिअ। तखन तँ मनोज रहत की ने ओ तँ बेटा धन छी। बेटा-बेटीक बिआह करब माए-बापक अनिवार्य कर्तव्य छी। मुदा हमरा मनमे एकटा नव विचार अछि। ओ ई जे सुनएनाकेँ सेहो पूछि लिऐ।’’
  सुनएनासँ पूछैक बात सुनि पत्नी ढोढ़ साँप जेकाँ हनहनाइत बाजलि- ‘‘लोक की कहत? आइ धरि ककरा देखलिऐ जे माए-बाप बेटा-बेटीसँ पूछि कऽ बिआह करैत अछि।’’
  पत्नीक विचार सुनि वकील साहेब मने-मन सोचए लगलाह जे नारीकेँ मात्र पुरुखे नहि नारियो दाबि कऽ रखै चाहैत अछि। अजीब घेरा-बंदीमे नारी फँसल अछि। मुदा अपन विचारकेँ मनेमे राखि सुनएनाकेँ सोर पाड़लखिन। अपना कोठरीसँ निकलि सुनएना आएलि। कुरसीपर बैसलि। सुनएना माए दिशि देखए लागल। तामसे माए पति दिशि देखैत। वकील साहेब सुनएनाकेँ कहलखि‍न- ‘‘बाउ, आब तूँ एम.ए. पास कइये लेलह। माए-बापक दायित्व होइत छैक बेटा-बेटीक बिआह करब। तेँ हमहूँ अपन भार उतारए चाहै छी। तोरो किछु बजैक छह।’’
  पिताक बात सुनि सुनएनाक देहमे कँप-कँपी आबि गेलै। मनमे थोड़े ओज। मुदा असथिरसँ बाजलि- ‘‘बाबूजी, विआह तँ सभ पुरुष-नारीक लेल अनिवार्य प्रक्रिया छिऐ। जाहिसँ सृष्टिक विकास प्रक्रियामे सहयोग होइ छै। रहल बात जे विआह केहेन होअए। एखन जे देखि रहल छी ओ नब्बे-पनचानबे प्रतिशत अनमेल बिआह होइत अछि। कतौ धनक मिलानीसँ तँ कतौ दहेजक चलैत, कतौ कुल-मूलक चलैत तँ कतौ किछु। मुदा हमरा विचारसँ बिआह हेबाक चाही मनक मिलानीसँ। जे टिकाउएटा नहि आनन्दमय सेहो हएत।’’
  सुनएनाक बात सुनि माए उत्तेजित होइत बाजलि- ‘‘बेटी, हमरा सबहक मिथिलाक परम्परा रहल अछि जे ई विआह काज माए-बापक विचारसँ होइ नै की बेटा-बेटीक विचारे। किन्तु जँ बेटा-बेटीक विचारसँ बिआह हएत तँ समाज ढनमना जाएत।’’
  सुनएना बाजलि- ‘‘बड़ सुन्नर बात कहलीही माए मुदा परम्पराक भीतर जे दुरगुण छैक ओहूपर नजरि देमए पड़तौ।’’
  मुँहपर हाथ देने वकील सहाएब चुप-चाप सुनैत रहथि। सुनएनाक तर्कक आगू माए कमजोर पड़ैत गेलीह। मुदा तैयो चुप होइले तैयारे नहि छलीह। सामंजस्य करैत वकील सैहेब सुनएनाकेँ कहलखिन- ‘‘बाउ, तूँ अप्पन विचार दएह?’’
  सुनएना बाजलि- ‘‘अहाँ खर्च कत्ते करए चाहै छी बाबूजी?’’
  खर्चक नाम सुनि वकील सहाएब चौंकि गेलाह। मुदा अपनाकेँ स्थिर राखि कहलखिन- ‘‘बाउ, अप्पन की ओकाइत अछि से तोहूँ जनिते छह। मुदा जे ओकाइत अछि ओहिमे हम कंजूसी नै करबह। दू भाए-बहीन छह। ई सम्पत्ति तँ तोरे सबहक छिअह।’’
  सुनएना बाजलि- ‘‘बाबूजी, मनुक्ख देहे आ धने पैघ नहि होइए, पैघ होइए ज्ञान आ कर्तव्ये। सभ स्त्री चाहैए जे हमर जीवन-संगी बुधियार आ कर्मठ हुअए। एखन हम अहाँकेँ अंतिम निर्णए नहि दऽ रहल छी मुदा एते जरुर कहब जे सोनपुरमे मंगल नामक एकटा चाहक दोकानदार अछि। ओकरा कियो ने छै। मुदा ओकर जे काज आ बुद्धि छैक ओ ओकरा एक दिन महान साहित्यकारक रुपमे दुनियाँक बीच अनतै। एखन ओकरा गरीबी जरजर बनौने छै। गरीबीक जालमे ओ एना ओझरा गेल अछि जाहिसँ निकलब कठिन छैक। किन्तु जँ ओकरा ओहि गरीबीक जालसँ निकालल जाए तँ ओ जरुर उगैत सूर्य जेकाँ अकासमे चमकए लगत।’’
  वकील सहाएब कहलखिन- ‘‘बाउ, यदि तूँ हृदएसँ ओकरा चाहैत छह तँ हमरा दिशिसँ कोनो आपत्ति नहि। मुदा एखन समए रहैत विचारि लैह।’’
  सुनएना बाजलि- ‘‘अनेक विषमता रहितो हमरा दुनू गोटेक बीच आत्माक समता अछि। हमहूँ नारीक संबंधमे किछु लिखए चाहै छी। किएक तँ अपना एहिठाम नारीक प्रति जे अदौसँ अखन धरि अन्याय होइत रहल अछि ओ हमरा हृदएकेँ दलमलित कऽ देने अछि। दुनियाँक सुन्दरसँ सुन्दर वस्तु हमरा फीका लगि रहल अछि।’’
  वकील सहाएब कहलखिन- ‘‘बाउ, हम तोहर विचारकेँ मानि लेलियह। तूँ अपनेसँ जा कऽ देखि आबह जे कते मदतिसँ ओ मंगल उठि कऽ ठाढ़ हएत। हम ओते मदति कऽ देबै।’’
  पिताक विचार सुनि सुनएना हँसैत अपना कोठरी दिशि बिदा भेलि। सुनएनाक विचारपर वकील सहाएब मने-मन गौर करए लगलथि। मुदा पत्नीक मनक तामस आरो बढ़िते गेलनि।

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