Tuesday, April 28, 2009

जितेन्द्र झा मैथिली लोकरंग

जितेन्द्र झा
मैथिली लोकरंग(मैलोरंग)ल डमरु बाजे नाटक मन्चन कएलक । कोशी नदीक बाढ़िक विभीषिका आ मिथिलाक सामाजिक कुरीतिके एक्कहिटा मालामे गांथके काज भेल अछि - जलडमरु बाजेमे ।
कोशीक बाढ़िमे सभ किछु दहा गेलाक बादो विचारक कुसंस्कार नई धोआइ छै कोशीक पानिसँ । जातीय कुसंस्कृति, कुसंस्कार र वर्गीय भेदभाव केनाक' लोकके जकडनहि रहैत छै से ई नाटकमे निक जकाँ देखाओल गेल अछि । पैघ जाति- छोट जाति, बडका छोटकासं उपर उठबालेल ई नाटक प्रेरित करैत अछि । कोशीमें पानि अबैत छैक आ चलि जाइत छैक मुदा नर्इं जाईत छैक परम्परागत रुढिवादी विचार, सामन्ती सोच आ बाह्र आडम्बर ।
नाटकमे कोशी बाढ़िसं पीडित अपन बासलेल भटकैत भुखला-भुखली, रामभरोसे, मुंहचीरा, सुप्पी, रामकली, गहना, डोमा, प्यारे सहितके पात्र मिथिलाक जमीनी यथार्थके चित्रण करैत अछि ।
रामे·ार प्रेम लिखित एहि नाटकके निर्देशक छथि प्रकाश झा । हिन्दीमे लिखल एहि नाटकके मैथिलीमे प्रकाश झा आ पवन अनुवाद कएने छथि । नया दिल्लीक मण्डी हाउसक श्री राम सेन्टरमे मे मन्चित नाटक देखबालेल मैथिली अनुरागीक बेस जमघट छल ।
दशमीमे अपन गामसं दुर रहल मैथिलके मैलोरंगक नाटक मात्र मनोरंजन नहि अपन गामघर याद आ कोशीक कोप सेहो याद दिया देने रहैक । मैथिली रंगकर्ममे निरन्तर सकृय मैलोरंग ई नाटक मन्चनसं प्रशंसाक पात्र बनल अछि । (साभार विदेह www.videha.co.in )

मर्म - जगदीश प्रसाद मण्डल




एकटा स्कूल छल जइमे हेलब सिखाओल जाइत छलैक। नव-नव विद्यार्थी प्रवेश लैत आ हेलैक कला सीख-सीख बाहर निकलैत छल। स्कूलेक आगूमे खूब नमगर-चौड़गर पोखरि रहए। जकरा कातमे तँ कम पानि मुदा बीचमे अगम पानि छल।
शिक्षक घाटपर ठाढ़ भऽ देखए लगलथि। विद्यार्थी सभ पानिमे धँसल। विद्यार्थी सभकेँ आगू मुँहे माने अगम पानि दिस बढ़ल जाइत देखि‍ शिक्षक कहए लगलखिन- “बाउ, अखन अहाँ सभ अनजान छी। हेलब नै जनै छी। तँए अखन अधिक गहीर दिस नै जाउ। नै तँ डूमि जाएब। जखन हेलब सीख लेब तखन पानिक ऊपरमे रहैक ढंग भऽ जाएत। जखन पानिक ऊपरमे रहैक ढंग सीख लेब तखन ओकर लाभ अपनो हएत आ दोसरोकेँ डुमैसँ बचा सकब। एहिना संसारमे वैभबोक अछि। अनाड़ी ओइमेा डूमि जाइत अछि, जबकि विवेकबान ओइपार शासन करैत अछि। जइसँ अपनो आ दोसरोक भलाइ होइ छै।”

वैभवक स्थितिमे व्यक्ति अपने कुसंस्कारसँ गहींर खाइ खुनि स्वयं डूमि जाइत अछि।