Sunday, October 23, 2011

त्रिकोणक एक कोणसँ अशोकसँ मुन्नाजीक साक्षात्कार


त्रिकोणक एक कोणसँ अशोकसँ मुन्नाजीक साक्षात्कार
मुन्नाजी: अपने मैथिली रचना प्रारम्भक प्रेरणा कतऽ सँ पौलहुँ। एकर प्रारम्भ कहिया आ कोना भेल?
अशोक: हम मैथिलीमे रचनाक प्रेरणा काशीमे ग्रहण केलहुँ। साते वर्षक अवस्था सँ पिता संग काशीमे रहऽ लगलहुँ, पढ़बाक लेल। मायाअ भाइ-भाउज लोकनि गाममे रहैत रहथि। काशीमे राम मन्दिरपर रही। ओतऽ हमर पिता स्व. उमापति झा मन्दिरक व्यवस्थापक रहथि। राममन्दिरपर मैथिल छात्र संघ द्वारा अनेक साहित्यिक ओ सांस्कृतिक कार्यक्रम होइ। नेनेसँ सभ देखऽ सुनऽ लगलहुँ। कानमे मिथिला, मैथिल ओ मैथिली शब्द सभ जाय लागल। एही क्रममे हमहूँ कविता सभ लिखऽ लगलहुँ। वर्ष १९६८ मे “वटुक” पत्रिका मे डॉ. सुधाकान्त मिश्र (जे “वटुक” पत्रिकाक सम्पादक रहथि) हमर पहिल कविता “शशि चन्दाके समान” छपने रहथि। ई कविता हम चन्दा झा जयन्तीक अवसरपर लिखने ओ पढ़ने रही। ओहि जयन्तीक अध्यक्षता मैथिलीक प्रसिद्ध कवि चन्द्रनाथ मिश्र “अमर” केने रहथि। तकर बाद कविता सभ लिखऽ लगलहुँ। जखन दर्जन भरि कविता लिखल भऽ गेल तँ अपन जेठ भाइ स्व. सुशील झा (प्रधानाचार्य, एल.एन. जनता कॉलेज, झंझारपुर) केँ देखौलियनि। ओ हमरा ओहि कविता सभकेँ डॉ. धीरेन्द्र (हमरे गामक प्रसिद्ध साहित्यकार) केँ देखेबाक लेल निर्देश देलनि। डॉ. धीरेन्द्र कविता सभ देखलनि आ ओहिमे सँ किछुकेँ मिथिला मिहिरमे पठेबाक लेल कहलनि। ओहि कवितामे सँ दूटा कविता मिहिर मे छपल। जाहिमे पहिल “ई न्यू लाइटक फैसन थिक” वर्ष १९६९ मे मिहिरमे छपल रहय।

मुन्नाजी: त्रिकोणक शेष दू कोण माने शिवशंकरजी/ शैलेन्द्रजी संग कोना जुड़लौं? पहिल संग्रह त्रिकोणक प्रकाशनक नियार कोना भेल?
अशोक:काशीसँ गरमीक छुट्टीमे गाम आबी। अही क्रममे वर्ष १९६७-७० मे गाममे दुनू गोटेसँ भेँट भेल। दुनू गाममे रहैत छला आ दुनूमे नेनेसँ मित्रता रहनि। तीनूकेँ जखन भेँट भेल तँ बुझलहुँ जे तीनू एक्के रस्ताक पथिक छी। तीनू कविता आ गीत लिखैत छी। कविता लिखब हमरा तीनूकेँ एक-दोसरासँ जोड़ि देलक। तकर बादसँ तँ तेहेन मिलान भेल जे लगबे नहि करय जे कहियो अपरिचित छलहुँ।
कविताक संग तीनू गोटे हम, शिवशंकर आ शैल (शैलेन्द्र आनन्द) कथा सेहो लिखऽ लगलहुँ। कथा सभ पत्रिका सभमे छपऽ लागल। शैल गामेसँ “आहुति” पत्रिका सेहो निकालऽ लगलाह। तखन नियार भेल जे तीनूक एक कथा-संग्रह निकलय। हम तावत् नोकरीमे पटना आबि गेल रही। पटनेसँ तीनू कथाकारक पाँच-पांच टा कथाक संग्रह निकलल “त्रिकोण” नामसँ।

मुन्नाजी: त्रिकोणसँ कतेक पूर्व अहाँ सभ लेखन प्रारम्भ केलहुँ। फेर एक पटलपर कोना एलौं आ तकर की फाएदा आ नोकसान भेल?
अशोक: मोटामोटी कही तँ हमरा तीनू गोटे एक्के संग लेखन प्रारम्भ केलहुँ। हम काशीमे रही। ओतहि कविता लिखऽ लगलहुँ १९६७-६८ ई. सँ। शिवशंकर श्रीनिवास आ शैलेन्द्र आनन्द गाम लोहनामे रहथि। ओही ठाम रहि ओही समयसँ लिखऽ लगला। लिखब शुरू करबाक बाद करीब दू-तीन बरखक भीतरे तीनूकेँ गाममे भेँट भऽ गेल। तकर बाद तँ संग-संग तँ संग-संग साहित्यमे जीबऽ लगलहुँ। हम १९७१ ई. मे गाम चल अयलहुँ। सरिसब कॉलेजमे आइ.एस.सी. करबाक लेल। १९७२ ई. मे आइ.एस.सी. केलहुँ। ओहो दुनू सरिसबे कॉलेजमे पढ़थि। तीनू लगभग संगहि कॉलेज जाइ आ आबी। मित्रता प्रगाढ़ होइत गेल। बी.एस.सी. करबाक लेल हम सीतामढ़ी गेलहुँ १९७२ ई. मे। मुदा फेर १९७५ मे गाम चल अयलहुँ। दू वर्ष गामे रहलहुँ। बी.पी.एस.सी. क प्रतियोगिता परीक्षाक तैयारीक क्रममे। फेर एक संग तीनूक जुटान भऽ गेल। कोनो नव रचना करी तँ तीनू एक दोसराकेँ सुनाबी। तकर बाद हमरा नोकरी लागि गेल। पटना आ अररिया, बक्सरमे रहलहुँ। वर्ष १९८३ मे पटना आबि गेलहुँ। त्रिकोण १९८७ मे छपल। ई सहयोगी प्रकाशन तीनूकेँ कथाकार रूपमे परिचय स्थापित करबामे सहायक भेल। कथाकारक रूपमे लोक चीन्हय लागल। एहिसँ नोकसान नहि फाएदे भेल।

मुन्नाजी: अहाँ जहिया लेखन प्रारम्भ केलहुँ तहिया आ आजुक परिस्थिति (साहित्यिक) मे की समानता वा भिन्नता देखाइछ?
अशोक:हमरा लोकनि जहिया १९६७-६८ मे लेखन प्रारम्भ केलहुँ तकरा आइ चालीस वर्षसँ बेसी भऽ गेल अछि। एहि चालीस वर्षमे बहुत परिवर्तन भेल अछि। से परिवर्तन व्यक्तिगत आ साहित्यिक दुनू रूपमे भेल अछि। तीनू आब एक संग नहि रहैत छी। भेंटो-घाँट कमेकाल भऽ पबैत अछि। मुदा साहित्य लेखन चलि रहल अछि। तीनूक पोथी सभ प्रकाशित भेल अछि। तखन जे जोश-खरोश ओहि समय रहय से आब नहि रहि गेल अछि। से दुनू स्तरपर। व्यक्तिगत रूपमे पारिवारिक कारण सभसँ आ साहित्यिक परिदृश्यमे सामाजिक कारण सभसँ। जँ जँ मैथिलीकेँ सुविधा प्राप्त भऽ रहलैक अछि तँ तँ साहित्यकारमे लगनशीलता घटि रहलैक अछि। मैथिली लेल ओ जोश खरोस नहि देखाइत अछि जे तीस-चालीस वर्ष पहिने छल। आइ मैथिलीक लेल सभसँ पैघ समस्या नव-नव प्रतिभाशाली लोकक साहित्य क्षेत्रमे नहि जायब थिक। एहन बात नहि छैक जे नव लोक आबि नहि रहल छथि, आबि तँ रहल छथि मुदा जे लगाओ, जे निष्ठा चाही से नहि देखाइत अछि। एहि बातक अनुभव ओहि सभ व्यक्तिकेँ भऽ रहलनि अछि जे कोनो पत्रिका निकालि रहल छथि वा साहित्यक विकास लेल प्रयत्नशील छथि।

मुन्नाजी:अहाँक लेखनक मध्य साम्यवादी विचारधाराकहवा मैथिलीयो साहित्यमे बहलै। की मैथिली साहित्यमे कोनो एहन स्वतंत्र विचारधारा बनि पौलै। अहाँ ओइसँ कतेक लग वा दूर रहलौं!
अशोक:साम्यवादी विचारधाराक प्रभाव तँ मैथिली साहित्यमे एकदम देखार अछि। से यदि नहि देखार भेल रहैत तँ ओहिपर एतेक आक्रमण जे बढ़लैक अछि से नहि बढ़ितैक। साम्यवादी विचारक प्रभाव तँ मैथिलीमे कंचीनाथ झा “किरण” आ यात्रीक साहित्येसँ दृष्टिगोचर हुअ लगैत अछि। १९६०क बाद ओहिमे तेजी अयलैक। १९७१ ई.सँ १९८० क दशकमे वातावरणमे पसरल नक्सलवाड़ी आन्दोलनक प्रभाव मैथिली साहित्यमे पुरजोर रूपेँ पड़लैक। अनेकानेक कविता, कथामे एकरा देखल आ चिन्हल जा सकैत अछि। बादमे ई विचारधारा क्रमशः महीन होइत गेल छलैक। तैं आब, जेना अहाँ कहलौं, हवा जकाँ नहि लगैत अछि। आब ई विचारधारा कोनो फैसन जकाँ नहि अछि, जीवनक अंग भऽ कऽ आबि रहल अछि साहित्यमे।

मुन्नाजी:अहाँ गद्यक लेखनमे लघुकथा सेहो लिखलहुँ। लघुकथा लिखब केहेन लागल, एकर सोच कतऽ सँ आयल?
अशोक: लघुकथा हम मित्र विभूति आनन्दक कहलापर लिखलहुँ। ओ माटि-पानि पत्रिकाक सम्पादक रहथि। वएह पत्रिका लेल लघुकथा लीखि कऽ देबाक लेल कहलनि। किछु लघुकथा माटि-पानि आ आन पत्रिकामे छपबो कयल। सगर रातिमे सेहो किछु लघुकथा पढ़लहुँ। एम्हर बहुत दिनसँ कोनो लघुकथा नहि लिखलहुँ अछि। जहिया लिखलहुँ तहिया लिखबामे खूब आनन्द आयल।

मुन्नाजी: अहाँक नजरिमे आजुक परिप्रेक्ष्यमे मैथिली लघुकथाक की स्थिति छै? की मैथिलीमे ओ स्वतंत्र स्थान पाबि सकत?
अशोक:मैथिलीमे आइयो लघुकथा खूबे लिखा रहल अछि। लघुकथाक पोथी सेहो प्रकाशित भेल अछि। तारानन्द वियोगी, प्रदीप बिहारी, मधुकर भारद्वाज, अनमोल आ अहाँक लघुकथा सभ हम पढ़ने सुनने छी। मोन पड़ैत अछि जे श्रीधरम सगर रातिमे पहिले पहिल अपन लघुकथासँ हमरा सभकेँ आकर्षित केने रहथि। लघुकथाक एक संग्रह स्व. ए.सी.दीपकजी बहार केने रहथि। मैथिलीमे लघुकथाक तँ स्वतंत्र स्थान छैके। तखन एक संग्रहक प्रयोजन तत्काल हमरा अवश्य बुझा रहल अछि।

मुन्नाजी:वर्तमानमे अन्यान्य भाषा-साहित्य मध्य मैथिली साहित्यक की स्थिति देखा पड़ैछ।
अशोक:मैथिलीमे कविता आ कथा आन भाषा साहित्यसँ पाछू नहि अछि। उपन्यास अवश्य पछुआएल अछि। उपन्यासक खगता अवश्य मैथिलीकेँ छैक। एहन उपन्यासक जे आन भाषाक उपन्याससँ टक्कर लऽ सकय। आन अनेक विधामे सेहो स्तरीय पोथी नहि आबि रहल अछि। आन भाषा साहित्य सन वैचारिक लेखन सेहो नहि भऽ रहल अछि। हँ, तारानन्द वियोगीक “तुमि चिर सारथि” हिन्दीमे अनुवाद भऽ खूब धूम मचौलक अछि। चर्चित प्रशंसित भेल अछि। मैथिलीकेँ एहिसँ गौरव भेटलैक अछि।

मुन्नाजी:एखन धरि अहाँ द्वारा जतेक काज भेल ताहि हेतु कोनो ठोस मूल्यांकन वा पुरस्कारसँ वंचित रहि केहेन अनुभूति होइए?
अशोक: वस्तुतः पूछी तँ हम जतेक काज केलहुँ अछि तकर खूबे मूल्यांकन भेल अछि। हमरा मूल्यांकनक कोनो अभाव नहि बुझाइत अछि। काजे नहि कऽ पाबि रहल छी जते करबाक चाही। आन अनेक प्रकारक व्यस्तता लेखन नहि करऽ दैत अछि। तकर अनुभूति बरोबरि होइत रहैत अछि। जहाँ धरि पुरस्कारक गप अछि तँ तेहेन कोनो काजे हम आइ धरि नहि केलहुँ अछि। एखन तँ बहुत काज करबाक अछि। बहुत लिखबाक अछि।

मुन्नाजी:अपन तीनू कोणक मध्य अहाँ अपनाकेँ कतऽ पबै छी?
अशोक:तीनू कोणक अपन फूट-फूट महत्व आ विशिष्टता होइत छैक। मुदा तीनू मिलिए कऽ त्रिकोण बनैत अछि। तखन आइ एकटा कोण लोहनामे, एकटा कोण दरभंगामे आ एकटा कोण पटनामे अछि, एहि स्थानक भिन्नताक प्रभाव तँ पड़िए रहल छैक। तीनू कोण जखन फेरसँ एक संग लोहनामे जुटब तँ सोचब जे के, कोना आ कतऽ छी। त्रिकोणक यात्रा तँ एखन चलिये रहल अछि।

मुन्नाजी:नव पीढ़ीक रचनाकार वास्ते अपन विचार की देब?
अशोक: औ मुन्नाजी, हम तँ एखनहुँ अपनाकेँ नबे मानैत छी। किछु लिखैत छी तँ होइत रहैत अछि जे बनलैक की नहि। कोंढ़ कपैत रहैत अछि। हमरा तँ अपने बेर-बेर विचारक आवश्यकता होइत रहैत अछि। एहनामे हम विचार की देब?
(साभार विदेह www.videha.co.in )

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