Tuesday, November 11, 2008

जीविका - जगदीश प्रसाद मण्डल



शिवरात्रिक प्रात। मध्य मास। जइ डेढ़ मासक शीतलहरीमे सूर्य मरनासन्न भऽ गेल छलाह तइमे जीबैक नव शक्ति सेहो आबि गेलनि। तेँ रौदमे धीरे-धीरे गरमी अबैत। चारि बजे भोरमे उमाकान्तक नीन टुटल। निन्न टुटितहि देवाल घड़ीपर नजरि देलक। चारि बजैत। ओछाइनेपर पड़ल-पड़ल अपन आगूक जिनगी दिशि नजरि देलक। ओना काल्हिये दिनमे दुनू दोस्त विचारि नेने छल। विचारि नेने छल जे दुनू गोटे टेम्पू कीनए भोरुके गाड़ीसँ दरभंगा जाएब। बदलैत जिनगीक संकल्प उमाकान्तक मनमे। किएक तँ जिनगी मनुष्यकेँ किछु करैक लेल भेटैत अछि। मनमे एलै जे पाँच पचपनमे गाड़ी अछि तेँ पाँच बजे घरसँ निकलब। ओना अधे घंटाक रस्ता स्टेशनक अछि मुदा किछु पहिनहि पहुँचब नीक रहत। ओना काहियो कोनो गाड़ी अपना समएपर नहिये अबैए, एकाध घंटा लेट रहिते अछि मुदा तइसँ हमरा की? हम समएपर जाएब। शुभ काज सदिखन समएसँ पहिनहि करैक कोशिश करक चाही। एते बात मनमे अबितहि उमाकान्त ओछाइन छोड़ि उठि गेल। उठितहि मनमे एलै जे हमर ने नीन टुटि गेल मुदा जँ दोस शोभाकान्तक नीन नहि टुटल होए, तखन तँ गड़बड़ होएत। से नहि तँ पर-पैखाना जाइसँ पहिने ओकरो जा कऽ उठा दिऐ। फेर मनमे एलै दतमनि करिते जाए। किएक तँ एकटा काज तँ अगुआइल रहत। हाथमे दतमनि लैतहि मनमे एलै जे किछु खा-पी कऽ घरसँ निकलब। रास्ता-बाटक कोन ठेकान। तहूमे लोहा-लक्कड़क सवारी। कखन नीक रहत कखन बगदि जाएत, तेकर कोन ठेकान। एक बेर एहिना भेल रहए की ने। दरभंगे जाइत रही आकि मनीगाछी लोहनाक बीच गाड़ीक इंजिन खराब भऽ गेलै। भोरुके गाड़ी, तेँ सोचने रही जे दरभंगे पहुँचि किछु खाएब-पीब। ले बलैया, दू बजे तक गाड़ी ओतए अटकि गेलै। कखनो गाड़ीक डिब्बामे जा बैसी तँ कखनो उतरि कऽ इंजिन लग पहुँचि ड्राइवरकेँ पूछिऐ। ओहू बेचाराक मन घोर-घोर भेल। हमहूँ आशा-बाटीमे रहि गेलहुँ। से जँ पहिने बुझितिऐ तँ गाड़ी छोड़ि बिदेसर चौकपर चलि जैतहुँ आ बस पकड़ि सबेर सकाल दरभंगा पहुँचि जैतहुँ। सेहो नै केलहुँ। तेकर फल भेल जे भूखे-पियासे खूब टटेलहुँ। तेँ बिना किछु मुँहमे देने घरसँ नै निकलब। ई बात मनमे अबिते उमाकान्त पत्नीकेँ उठबैत कहलक- ‘जाबे हम दोस शोभाकान्तक ऐठामसँ अबै छी ताबे अहाँ चारिटा रोटी आ अल्लूक भुजिया बना लेब।’
कहि उमाकान्त शोभाकान्तक ऐठाम दतमनि करैत बिदा भेल। दाँतमे घुस्सो दिअए आ मने-मन बिचारबो करए। मनमे एलै जे काजे एहेन छी जे मनुक्खकेँ मनुक्खो बनबैए आ जानवरो। दुनियाँक सभ मनुक्ख तँ किछु नहि किछु करितहि अछि। मुदा कियो देव बनि जाइत अछि तँ कियो दानव। तेँ काजकेँ परिखब सभसँ मूल बात छी। शोभाकान्त ऐठाम पहुँचिते उमाकान्त रस्तेपर सँ बोली देलक- ‘दोस छेँ रौ, रौ दोस।’
ओछाइनपरसँ उठैत शोभाकान्त बाजल- ‘हँ। दोस छिऐ रौ, हमरो नीन टुटले अछि। अखन तँ अन्हारे छै।’
उमाकान्त- सवा चारि बजै छै। तैयार होइत-होइत पाँच बजिये जाएत। कने पहिले स्टेशन जाएब।’
उमाकान्त आ शोभाकान्त एक्के बतारी। दुनूमेे उमेरक हिसाबसँ के छोट के पैघ, से तँ ने अपने दुनू गोरे बुझए आ ने कियो टोले-पड़ोसक। किएक तँ टिपनि दुनूमेसँ ककरो नहि। बच्चेसँ दुनू गोटे, बेसी काल, एक ठाम रहैत तेँ समाजोक लोक बिसरि गेल। अपना दुनू गोटेक माइयो-बाप मरिये गेल, आन मने किएक राखत। मुदा दुनू गोटे एहि मौकाक लाभ उठबैत। लाभ ई उठबैत जे दुनू, दुनू गोटेक स्त्रीसँ हँसी-चौल करैत। तइले दुनूमेसँ ककरो मलाल नहि। मुदा गामक बूढ़ो-बुढ़ानुस आ नवकियो कनियाँ दुनू स्त्रीगणकेँ निरलज कहैत। तेकर गम दुनूमे सँ ककरो नहि। किएक तँ सभ स्त्रीगणकेँ होइत जे अधिक सँ अधिक पुरुखक संग गप-सप्‍प, हँसी-मजाक हुअए।
बच्चेसँ दुनू गोटे- उमाकान्त आ शोभाकान्त- एक्के ठाम गुल्लियो-डंडा खेलए आ गामेक स्कूलमे पढ़बो करए। बच्चामे दुनू गोरे दुनूकेँ नामे धऽ-धऽ बजैत। मुदा चेष्टगर भेलापर, कनगुरिया ओंगरीमे ओंगरी भिरा दोस्ती लगा लेलक। मिडिल तक गामेक स्कूलमे दुनू गोटे पढ़लक। मुदा हाइ स्कूलमे उमाकान्तेटा नाओ लिखेलक। शोभाकान्त गरीब, तेँ पढ़ाइ छोड़ि देलक। मुदा उमाकान्तकेँ दू-तीन बीघा खेतो आ पितो गामेक स्कूलमे नोकरी करैत। ओना शोभाकान्त उमाकान्तसँ बेसी चड़फड़ो आ पढ़ैइयोमे नीक। तेँ अपना क्लासक मुनिटिराइयो करैत। मुनीटरक बात शिक्षको अधिक मानैत आ चट्टियाक बीच धाखो। पढ़ाइ छोड़लाक बाद शोभाकान्त नोकरी करए पटना गेल। गामसँ तँ यएह सोचि निकलल जे जएह काज भेटत सएह करब। मुदा रस्तामे बिचार बदलि गेलै। विचार ई बदलल जे ने चाहक दोकानमे नोकरी करब आ ने होटलमे। ने कोठीमे काज करब आ ने तारी-दारुक दोकानमे। अगर जँ नोकरी नै हएत तँ रिक्शे चलाएब वा मट्टियेमे काज करब। सरकारी नोकरीक तँ कोनो आशे नहि। किएक तँ उमेरो नै भेलहेँ।
गामसँ शहर शोभाकान्त पहिले-पहिल पहुँचल। मुदा जे आकर्षण शहर-बजार देखि लोककेँ होइत ओ आकर्षण शोभाकान्तकेँ नै होइत। जहिना सोना-चानीक दोकान दिशि गरीबक नजरि नहि पड़ैत, तहिना। स्टेशनसँ उतरि ओ उत्तर दिशक रस्ता धेलक। कोठा-कोठीपर नजरि पड़बे ने करै। किछु दूर गेलापर एकटा साइकिल मिस्त्रीक दोकान देखलक। रस्तापर ठाढ़ भऽ दोकान हियासए लगल। दोकानदारोक नजरि पड़ल। शोभाकान्तपर नजरि पड़ितहि दोकानदारक मनमे आएल जे छोटो-छोटो काजमे अपने बरदा जाइ छी, जाहिसँ नमहर काज पछुआ जाइए। से नञि तँ अइ बच्चाकेँ पूछिऐ जे नोकरी रहत। जँ रहत तँ रखि लेब। हाथक इशारासँ सोर पारि मिस्त्री पुछलक- ‘बाउ, की नाम छी?
  ‘शोभाकान्त।’
  ‘कत्तऽ घर छी?’
  ‘मधुबनी जिला।’
  ‘कत्तऽ जाएब?’
  ‘नोकरी करए एलहुँ।’
  ‘ऐठाम रहब?’
  ‘हँ। रहब।’
जहिना अतिथि-अभ्यागतकेँ दुआरपर अबितहि घरबारी लोटामे पानि आनि आगूमे दैत, खाइक आग्रह करैत, तहिना शोभाकान्तकेँ मिस्त्री केलक। आठ आना पाइ दैत, आंगुरक इशारासँ मुरही-कचड़ीक दोकान देखबैत कहलक जे ओहि दोकानसँ जलखै केने आउ। झोरा रखि शोभाकान्त बिदा भेल। ओना गाड़ीक झमारसँ देहो-हाथ दुखाइत आ भूखो लागल, मुदा नोकरी पाबि देहक दरदो आ भूखो कमि गेलै। मुरही-कचड़ीक दोकानपर बैसितहि, बगए-बानि देखि दोकानदार पुछलक- ‘बौआ, अहाँक घर कत्तऽ छी?’
  शोभाकान्त- ‘मधुबनी जिला।’
  ‘गामक नाम कहू।’
  ‘लालगंज।’
  ‘हमरो घर तँ अहाँक बगलेमे अछि, रुपौली। बीस-पच्चीस बर्खसँ हम ऐठाम रहै छी।’
  बिना पाइ नेनहि दोकानदार शोभाकान्तकेँ भरि पेट खुआ देलक। खा कऽ शोभाकान्त साइकिलक दोकानपर आबि मिस्त्रीकेँ पाइ घुमबैत कहलक- ‘दोकानदार पाइ नञि लेलक।’ मुदा गहिकीक झमेल दुआरे मिस्त्री आगू किछु नहि पुछलक।
साइकिल ट्यूबक पनचर बनौनाइ, छोट-छोट भंगठीसँ शोभाकान्त अपन जिनगी शुरु केलक। छोट-छोट काज भेने दोकानदारोकेँ आगू बढ़ैक अवसर हाथ लगल। साइकिल, रिक्शाक संग मोटर साइकिल आ टेम्पूक मरम्मत केनाइ सेहो शुरु केलक। शोभाकान्तोकेँ मौका भेटलै। उपारजनक लूरि अबए लगलै। दुनियाँकेँ बिसरि शोभाकान्त रिन्च-हथौरीमे मगन भऽ गेल।
छह मास बीतैत-बीतैत शोभाकान्त साइकिल-रिक्शाक मिस्त्री बनि गेल। संगहि मोटर साइकिल आ टेम्पू चलाएब सेहो सीखि लेलक। मेहनत केने शरीरो फौदा गेलै। साले भरिमे जवान भऽ गेल।
ड्राइवरीक लाइसेंस शोभाकान्त बना लेलक। ड्राइवरीक लाइसेंस बनबितहि शोभाकान्तक मनमे द्वन्द्व उत्पन्न हुअए लगल जे ड्राइवरी करी आकि अपन दोकान खोलि मिसतिरिआइ करी। मुदा अपन दोकान खोलैक लेल घर भाड़ाक संग मरम्मत करैक सामानो लिअए पड़त। फेर मनमे एलै जे एक तँ मेनरोडमे घर नै भेटत दोसर पाइयो ओते नञिए जे सामानो कीनब। तइसँ नीक जे ड्राइवरिये करी। सएह केलक। ड्राइवरीमे दरमहो नीक आ बाइलियो आमदनी। महीना दिन तँ अव्यवस्थिते रहल मुदा दोसर मास बीतैत-बीतैत असथिर भऽ गेल। दरमाहा जमा करए लगल आ बाइली आमदनी घर पठबए लगल।
सालभरिक दरमाहासँ शोभाकान्त टेम्पू कीनि लेलक। टेम्पू कीनि, अपन सभ सामान लादि, शोभाकान्त सोझे गाम चलि आएल।
सेकेण्ड डिबीजनसँ उमाकान्त बी.ए. पास केलक। ओना पढ़लो-लिखल लोक कम मुदा ओहूसँ कम नोकरी। खेती-पथारी आ कारोवार कियो पढ़ल-लिखल करै नहि चाहैत। जाहिसँ गाम-सबहक दशा दिनो-दिन पाछुए मुँहे ससरैत। गामक लोको तेहने जे पढ़ल-लिखल लोककेँ खेती करैत देखि, दिल खोलि कऽ हँसबो करैत आ लाख तरहक लांछना सेहो लगबैत। जाहिसँ गामक पढ़ल-लिखल लोककेँ नोकरी करब मजबूरी भऽ जाइत।
नोकरीक भाँजमे उमाकान्त दौड़-धूप करए लगल। मुदा मनमे संकल्प रखने जे घूस दऽ कऽ नोकरी नञि करब। चाहे नोकरी हुअए वा नहि। दौड़-धूपसँ मन विचलित हुअए लगलै। संकल्प डोलए लगलै। मनमे अनेको प्रश्न औंढ़ मारए लगलै। कखनो मनमे होए जे पाँच कट्ठा खेत बेचि कऽ नोकरी पकड़ि लेब। फेरि मनमे होए जे जखन घूस दऽ कऽ नोकरी लेब तँ घूस लऽ कऽ लोकक काज किअए ने करबै? फेर मनमे होए जे तखन जिनगी केहेन हएत? अछैते जिबने मुरदा बनल रहब। लोक शरीर तियागक बाद मृत्यु धारण करैत अछि आ हम जीबितेमे मरल रहब। फेर मनमे एलै जे पत्नी तँ जीवन-संगिनी छी तेँ एक बेर हुनकोसँ पूछि लिअनि। मनमे कने शान्ति एलै। पत्नीसँ पुछलक- ‘बिना घूस-घासक नोकरी भेटब कठिन अछि, से अहाँक की विचार?’
मुस्की दैत पत्नी बाजलि- ‘आइक युगमे नोकरी भेटब जिनगी भेटब छी। तेँ हमरो गहना-जेबर अछि आ जँ ओहिसँ नञि पूड़ै तऽ थोड़े खेतो बेचि कऽ नोकरी पकड़ि लिअ। देखते छिऐ जे साले भरिमे लोक की सँ की कए लैत अछि।’
एक तँ ओहिना उमाकान्तक मन घोर-घोर होइत, तइपरसँ पत्नीक बात आरो मरनासन्न बना देलक। जिनगीक आशा टूटए लगल। आँखिक रोशनी क्षीण हुअए लगल। आशाक ज्योति कतौ बुझिये ने पड़ैत। जहिना अन्हारमे सगतरि भूते-प्रेत, चोरे-डकैत, साँपे-छुछुनरि बुझि पड़ैत, तहिना उमाकान्तकेँ हुअए लगल। डूबैत जिनगीक आशामे कने टिमटिमाइत इजोत बुझि पड़लै। इजोत अबिते शक्तिक संचार हुअए लगलै। मनमे संकल्पक अंकुर अंकुरित हुअए लगलै। जाहिसँ दृढ़ताक उदए सेहो हुअए लगलै। मने-मन विचार करए लगल। विचार केलक जे जिनगीक किछु लक्ष्य हेबाक चाही। मनुष्य तँ चुट्टी-पिपरी नहि होइत जे साधारण ककरो पाएर पड़लासँ मरि जाएत। मनुष्य तँ ब्रह्मक अंश छी। ओकरामे विशाल शक्ति छिपल छै। जिनगीमे एहिना हवा-बिहाड़ि अबै छै, तहिसँ की मनुष्य मनुष्यता गमा लेत। मनुष्यते तँ मनुष्यक धरोहर सम्पति छी। जेकरा लोक ओहिना कतौ फेकि देत। कथमपि नहि। मने-मन विचारलक जे हमरा नोकरी नै भेटत। तेँ कि हाथपर हाथ दऽ कऽ बपहारि काटब। एते कमजोर छी। की हमरामे मनुष्यक सभ गुण मरि चुकल अछि। हमरा बुते किछु कएल नै हएत? जरुर हएत।
नोकरी दिशिसँ नजरि हटा उमाकान्त राशनक दोकान चलबैक विचार केलक। विचार एहि दुआरे केलक जे जीबैक लेल अर्थक उपार्जन जरुरी होइत। जिनगीक अधिकांश काज अरथेसँ चलैत। तेँ बिना अर्थे जिनगी जिनगी नहि रहि जाइत। हँ ई बात जरुर जे अर्थक उपार्जन आ उपयोगक ढ़ंग नीक हेबाक चाही। राशनक दोकानक जरुरत सभ गाममे अछि, सरकार आ समाजक बीचक कड़ी सेहो छी। ओना डीलरीक लाइसेंसो बनबैमे पाइयेक खेल चलैत। मुदा तइयो जी-जाँति कऽ उमाकान्त लाइसेंस बनबै दिशि बढ़ल।
डीलरीक लाइसेंस बनौलाक उपरान्त उमाकान्त समान उठबैसँ पहिने मिश्रीलालसँ कारोबारक तौर-तरीका बुझैक लेल गेल। मिश्रीलाल पुरान डीलर। मुदा जहिना गाममे अपन इज्जत बनौने तहिना सरकारियो आॅफिसमे। इज्जत बनबैक अपन तरीका। तेँ ब्लौकक पैंतालिसो डीलर मिलि ओकरा यूनियनक सेक्रेट्री बनौने। जहिना सभ डीलर मिश्रीलालकेँ मानैत तहिना मिश्रीलालो सभकेँ। यएह बुझि उमाकान्त भेँट करब आवश्यक बुझलक। मिश्रीलाल ऐठाम उमाकान्त पहुँचल तँ देखलक जे चारि-पाँचटा धिया-पुता रजिस्टरपर दसखतो करैए आ निशानो लगबैए। किएक तँ पछिला मासक समान बँटबारा भऽ गेल छल। तेँ बिना रजिस्टर तैयार भेने अगिला समान कोना उठत? जरुरी काज बुझि मिश्रीलाल मगन भऽ अपन काज करैत। उमाकान्तकेँ देखतहि मिश्रीलाल रजिस्टरक बीचहिमे, जइ पेजमे निशान आ हस्ताक्षर करबैत, पेनो आ कार्बनो रखि मोड़ैत बेटाकेँ कहलक- ‘बौआ, चाह बनबौने आबह?’ उमाकान्त दिशि होइत पुछलक- ‘किमहर किमहर एनाइ भेलै बौआ।’
निर्बिकार भऽ उमाकान्त बाजल- ‘भैया, अहाँ पुरान डीलर छी। डीलरीक सभ कुछ जनै छिऐ। बी.ए. केलाक बाद हम दू साल नोकरीक पाछु बौऐलहुँ मुदा कतौ गर नै धेलक। आब तँ नोकरीक उमेरो लगिचाइले अछि, तेँ नोकरीक आशा तोड़ि डीलरीक लाइसेंस बनेलहुँहेँ।’
नोकरीक गर नहि लागब सुनि मिश्रीलाल कहलक- ‘बौआ, जहिना कोनो परिवारमे चारि-पाँच भाँइक भैयारी रहैत अछि। सभ कुछ सामिले रहै छै। मुदा सभ भाइक पत्नीकेँ अप्पन-अप्पन सम्पत्ति सेहो छै। जहिमे भाइयो सभ चोरा-नुका शामिल भऽ जाइत अछि। जेकर फल होइ छै घरमे आगि लागब। तहिना नोकरियो सभमे भऽ गेल अछि। जे कुरसीपर अछि ओ अपने सार-बहिनोइक जोगारमे रहैए। कहीं कतौ बिकरियो होइ छै। जेकर परिणाम बनि गेल अछि जे नाेकरी केनिहारोक बंश बनि गेल अछि। देशक विकास केहेन अछि से तँ तू पढ़ले-लिखल छह, सभ कुछ जनिते छहक। जँ कनी-मनी एक रत्ती आगूओ बढ़ि रहल अछि तँ ओहिसँ बेसी ओहि नोकरिहाराक वंशमे नोकरी केनिहार बढ़ि रहल अछि। तेँ देखबहक जे डाक्टरक बेटा डाक्टरे बनत। इंजीनियरक इंजीनियरे। कते कहबह। जे जत्ते अछि ओ बपौती बुझि ओकरा पकड़ने अछि। तहि बीच तेसरक- जे ओहिसँ अलग अछि- जे गति हेबाक चाही सएह तोरो भेलह। तहूसँ बेसी जुलुम अछि जे किछु गनल-गूथल लोक अछि जे नोकरियो करैत अछि, खेतो हथिऔने अछि आ जे कोनो सरकारी योजना बनै छै ओकरो हड़पैत अछि। जइसँ देखबहक जे ककरो सम्पत्ति राइ-छित्ती होइए आ कियो सम्पत्ति लेल लल्ल अछि।’
उमाकान्त- ‘भैया, दुनियाँ-दारीक गप छोड़ू। अपना काजक विषएमे कहू।’
मिश्रीलाल- ‘बौआ, अखन तू जुआन-जहान छह। मुदा जे काज कऽ अपना जीबए चाहै छह ओ गलती भेलह। तोरा सन आदमीकेँ डीलरी नञि करक चाही। हम तँ सभ घाटक पानि पीनाइ सीखि नेने छी। की नीक की अधला, से बुझिते ने छिऐ। बुझह तँ नढ़ड़ा-हेल हेलैत छी। तेँ हमर कारबार ठीक अछि। मुदा तोरा बुते नै हेतह?
उमाकान्त- ‘किए?’
तहि बीच चाह एलै। दुनू गोटे हाथमे गिलास लेलक। एक घोंट चाह पीबि मिश्रीलाल- ‘देखहक, डीलरी दू दुनियाँक सीमा परक काज छी। एक दिशि सत्ताक दुनियाँ अछि आ दोसर दिशि आम लोकक। गड़बड़ दुनू अछि।’
उमाकान्त- ‘से की?’
मिश्रीलाल- ‘पहिने पब्लिकेक बात कहै छिअह। राशनक वस्तु चीनी मटियातेल, तँ हिसाबेसँ भेटैत अछि। नामे छिऐ कोटा। जँ मनमाफित भेटिते तँ खुल्ला बजार होइतै। से तँ नञि अछि। गाममे किछु एहेन-एहेन रंगबाज सभ बनि गेल अछि जेकरा खाइ-पीबैले नै देबहक तँ भरि दिन अपनो आ अनको उसका-उसका रग्गड़े करैत रहतह। रग्गड़केँ तँ कोनो सीमा नै होइ छै। जँ कहीं गोटे दिन लाठिये-लठौबलि भऽ जेतह तखन तँ लेनीक देनी पड़ि जेतह। दू पाइ कमाइले धंधा करबह आकि कोट-कचहरीक फेरमे पड़बह। बुझिते छहक जे कोट-कचहरी लोकेक पाइपर ठाढ़ अछि। ओइ साला रंगबाज सभकेँ की अछि। अपने किछु करतह नहि आ अनका काजमे सदिखन टांगे अड़ौतह। गामक उत्पातसँ लऽ कऽ थाना-पुलिस, कोट-कचहरीक दलाली भरि दिन करैत रहतह। आब तोंही कहह जे बरदास हेतह? नीक लोकक लेल अइ दुनियाँमे कतौ जगह नहि अछि। ओइ साला सभकेँ की छै, भरि दिन ताड़ी-दारु पीबि ढ़हनाइत रहतह। ने छोट-पैघक विचार करतह आ ने गाड़ि मारिक। तइपरसँ पंचायत मुखियो आ वार्डो-मेम्बर सभकेँ कमीशन चाहबे करियै। पब्लिको तेहने अछि। देखबहक जे कतेक एहेन परिवार अछि जेकरा कोटाक वस्तुक जरुरत नै छै जेना चीनी। मुदा ओहो कोटासँ चीनी उठा दोकानमे किछु नफा लऽ कऽ बेचि लेतह। जखनिकि किछु परिवार एहेन अछि जेकरा कोटाक वस्तुसँ खर्च नै पूड़ै छैक। अपनो आँखिसँ देखबहक जे दस-बीस कप चाह आने पीबैत अछि। की ओकरा सभकेँ फाजिल नै देबहक। जखने एक गोटेकेँ फाजिल देबहक तँ दोसराक हिस्सा कटबे करत। एहेन स्थितिमे डीलरे की करत? आखिर ओहो तँ समाजेक लोक छी।’
उमाकान्त- ‘सभ गोटे तँ कोटा उठबितो नै हेतै?’
मिश्रीलाल- ‘हँ, सेहो होइए। मुदा ओ तखन होइए जखन कोटाक वस्तुक दाम आ खुल्ला बजारक दाममे अन्तर नै रहैत अछि। मुदा जखन दुनूक दाममे अन्तर रहैत अछि तखन जेकरो ने अपना पाइ रहै छै ओहो दोकानदार सभसँ, अधा-अधी नफापर, पाइ लऽ कऽ समान उठा लै अए आ बेचि लै अए। ततबे नै ओहो चाहतह जे किछु फाजिले कऽ समान भेटए।’
मुँह बिजकबैत उमाकान्त- ‘तब तँ बड़ ओझरी अछि।’
उमाकान्तक सोचकेँ गहराइ दिशि जाइत देखि मुस्की दैत मिश्रीलाल- ‘बौआ, एतबेमे छगुन्ता लगै छह। ई तँ एक दिसक बात कहलिहह। अहूमे कते ओझरी छुटिये गेलह। जँ सरिया कऽ सभ बात कहबह तँ सैकड़ो ओझरी आरो अछि। आब सुनह आॅफिस, बैंक, एफ.सी.आइ.क गोदामक संबंधमे। दौड़-बरहा जे करै पड़तह ओकरा छोड़ि दै छिअह। किएक तँ मोटा-मोटी यएह बुझह जे एक दिनक काजमे पनरहो दिनसँ बेसिये लगतह। जइमे समएक संग पच्चीस-पचास पौकेटो खर्च हेबे करतह।’
उमाकान्त- ‘तब तँ बड़ लफड़ा अछि?’
मिश्रीलाल- ‘लफड़ा की लफड़ा जेकाँ अछि। जखने ब्लौक पाएर देबहक आकि गीध जेकाँ चारु भरसँ, अफसरसँ लऽ कऽ चपरासी धरि, नोंचए लगतह। कियो कहतह जे चाह पिआउ तँ कियो कहतह पान खुआउ। कियो कहतह सिगरेट पिआउ तँ कियो मिठाइ खुआउ। सुनि-सुनि मन मोहरा जेतह। मुदा की करबहक? भीखमंगोसँ गेल-गुजरल चालि देखबहक। जेना अपना दरमाहा भेटिते ने होए। मुदा डीलरे की करत? अगर जँ सभकेँ खुशी नै राखत तँ काजे लटपटेतै। काजो तेहेन अछि जे एक्के टेबुलसँ नञि होइ छै। जत्ते टेबुल तते खर्च। अखन हमहू अगुताइल छी, तेँ नीक-नहाँति नहि कहि सकबह। देखते छहक जे रजिस्टर तैयार करै छी। ब्लौक जाएब। मुदा तैयो एक-दूटा बात कहि दै छियह। सबहक तड़ी-घटी ने हम बुझै छिऐ।’
उमाकान्त- ‘कनी-कनी सबहक बात कहि दिअ?’
मिश्रीलाल- ‘अगुताइलमे की सभ बात मनो पड़ै छै। मुदा जे मन पड़ैए से कहि दै छिअह। पहिने बैंकक सुनह। कोरियापट्टीमे दुनियाँलाल डीलर अछि। बेचारा बड़ मुँह सच। जहिना-जहिना समान बिकाइल रहए तहिना-तहिना पाइ रखने रहए। खुदरा समानक बिक्री तेँ खुदरा पाइ। जखन बैंकमे जमा करए गेल अगिला कोटाक लेल, तँ खुदरा पाइ देखि बैंकमे लेबे ने केलकै। कहलकै जे ओते हमरा छुट्टी अछि जे भरि दिन तोरे पाइ गनैत रहब। भरि दिन बेचारा छटपटा कऽ रहि गेल। बैंकसँ निकलबो ने करए जे पौकेटमार सभ ने कहीं पाइ उड़ा दिअए। दोसर दिन आबि कऽ हमरा कहलक। तामस तँ बड़ उठल। किएक तँ जेना मोटका पाइ सरकारक होए आ खुदरा नै होए, तहिना। जखन पाइयेक लेन-देन बैंकमे होइ छै तँ गनै ले स्टाफ राखह। मुदा की करितियै। दोसर दिन गेलौं। मनेजरकेँ कहलियै। तखन दू प्रतिशत कमीशनपर फड़िआइल। आब तोंही कहह जे ई दू प्रतिशत कोन बिलमे चलि गेल। तहिना दोसर बात लाए, सप्लाइ इन्सपेक्टरक। इन्सपेक्टर बदली भेलै। नव इन्सपेक्टर बुझि पनरह-बीस गोटे डीलर ओकरा पाइ नै देलकै। ओना पचास रुपैये प्रति डीलर प्रति मास इन्सपेक्टरकेँ दैत अछि। सभकेँ मनमे भेलै जे नव हाकिम छथि तेँ छओ मास तँ इमानदारी रखबे करताह। ले बलैया, जहाँ डीलर दोसर कोटाक सभ समान उठौलक आकि दोसर दिन भेने विश्वनाथ डीलर ऐठाम पहुँचि गेल। विश्वनाथोकेँ कोनो डर मनमे नहि। किएक तँ समान ओहिना रहए। विश्वनाथकेँ इन्सपेक्टर चीनी काँटा करैले कहलक। ओहो तैयार भऽ काँटा करै लगल। पाँचो बोरा मिला कऽ चौदह किलो चीनी कमि गेलै।
बिच्चहिमे उमाकान्त कहलक- ‘चीनी तौलि कऽ नञि नेने रहए?’
मिश्रीलाल- ‘ई एफ.सी.आइ. गोदामक खेल छी। एफ.सी.आइ. गोदाम तँ ब्लौके-ब्लौके नै अछि। तेँ देखबहक जे डीलर सबहक नम्बर लगल अछि। सभकेँ धड़फड़ करैत देखबहक। किएक तँ अपन टाएर गाड़ी तँ सभ डीलरक रहै नै छै। अधिक डीलर भड़ेपर गाड़ी लऽ जाइए। तेँ मनमे होइत रहै छै जे जते जल्दी समान हएत तते कम भाड़ा लगत। तेँ कियो समान तौलबै नै अछि। जे कियो पच्चीस रुपैइये बोरा मनेजरकेँ दऽ देने रहलै ओकरा तँ नीक समानो आ पुरल बोरो देलक। जे पाइ नञि देने रहल ओकरा समानो दब आ घटल बोरो देलक। चोरपर चोर अछि।’
छुब्ध होइत उमाकान्त- ‘हद लीला सभ अछि।’
मिश्रीलाल- ‘आब मार्केटिंग अफसर एम.ओ.क बात सुनह। अखुनका जे एम.ओ. अछि ओ पीआक अछि। ओना काज करैमे भुते अछि। रस्तो-पेरामे मोटर साइकिल लगा फाइलपर लिखि दैत अछि। मुदा ओहिना नहि। पहिले एक बोतल पीआ देबहक, तखन।’
उमाकान्त- ‘अफसर भऽ कऽ रस्ता-पेरापर बोतल पीबैए?’
ठहाका मारि हँसि मिश्रीलाल- ‘बौआ, तूँ गाम-घरक बात बुझै छहक। गाम-घरमे जे छोट-पइघीक, इज्जत-आबरुक विचार अछि ओ कत्तऽ पेबह। मुदा तइओ ओकरामे दूटा गुण जरुर छलैक। पहिल गुण छलैक जे आन कोनो स्त्रीगण दिशि नहि तकितह। आ दोसर गुण छलै जे ककरोसँ एक्को पाइ नञि लइतह। मुदा एहिसँ पहिलुका एम.ओ. जे रहए ओ भारी पाइखौक। सभ काजक रेट बनौने रहए। जे सभ बुझै। तेँ जेकरा जे काज रहै ओ ओइ हिसाबसँ पाइ दऽ दै आ लगले काज करा लिअए।’
मुस्कुराइत उमाकान्त- ‘तब तँ पक्का नटकिया सभ अछि।’
मिश्रीलाल- ‘नटकिया की नटकिया जेकाँ अछि। रंग-बिरंगक चोर सभ पसरल अछि। कियो धनक चोर अछि तँ कियो धरमक। कियो बुइधिक चोर अछि तँ कियो विवेकक। कते कहबह। तेसराक सुनह। अंदाज करीब पचपन छप्पन बर्खक उमेर ओकर रहए। मुदा फीट-फाटमे जुआनक कान कटैत। जेहने हीरोकट कपड़ा पहिरैत तेहने हिप्पीकट केश रखैत। रंग-बिरंगक तेल आ सेंट लगबै। सदिखन उपरका जेबीमे ककही देखबे करितहक। रातियोमे कैक बेर केश सीटै। चौबीस घंटामे दू बेर दाढ़ी बनबै। ओ एम.ओ. भारी नंगरचोप जेहने अपने तेहने बहुओ। दिन भरिमे पच्चीसो बेर कपड़ा साड़ी-ब्लाउज आ जूत्ता-चप्पल बदलै। केशमे कते रंगक क्लीप लगबै तेकर ठेकान नहि। भरि दिन रिक्शापर अइ डेरासँ ओइ डेरा, अइ बजारसँ ओइ बजार घुमिते रहैत छलि। संयोगो ओकरा नीक भेटलै। एक्के बेर बी.डी.ओ., सी.ओक बदली भऽ गेलइ। ओकरे दुनू गोटे चार्ज दऽ कऽ गेल। ओही बीच शिक्षा मित्रक भेकेन्सी भेल। लड़की सभकेँ आरक्षण भेटलै। जहिमे जाति प्रमाणपत्रक जरुरत पड़ल।’
अपसोच करैत- ‘बौआ की कहबह, ओइ सालाक डेरा बेश्यालय बनि गेल। कखनो ब्लौक आॅफिसमे नञि बैइसै। जखन बैसबो करै तँ आन-आन कागज देखए मुदा एक्कोटा जाति प्रमाणपत्रपर हस्ताक्षर नञि करए।’
उमाकान्त- ‘परिवारक कियो किछु ने कहए?’
मिश्रीलाल- ‘स्त्रीक विषएमे तँ कहिये देलियह। जेठकी बेटी बी.ए. मे पढ़ैत रहए। ओकरो चालि-ढ़ालि बापे-माए जेकाँ। कओलेजेक एकटा छौंड़ा आदिवासी क्रिश्चन संग चलि गेलै।’
उमाकान्त- ‘बाप-माएकेँ लाज नै भेलै?’
मिश्रीलाल- ‘लाज तँ तेहेन भेलै जे राता-राती अइठीनसँ भागल।’
उमाकान्त- ‘अहूँकेँ बहुत काज अछि आ हमरो मन भरि गेल। आखिरीमे एकटा बात बुझा दिअ।’
मिश्रीलाल- ‘की?’
उमाकान्त- ‘अहाँ कोना अप्पन प्रतिष्ठा समाजो आ आॅफिसोमे बना कऽ रखने छी?’
मिश्रीलाल मुस्कुराइत बजलाह- ‘समाजमे जकरा ऐठाम सराध, बिआह, उपनैन, मूड़न, भनडारा वा आन कोनो तरहक काज होइ छै तँ ओकरा हम जरुर चीनियो आ मट्टियो तेलक पूर्ति कइये दैत छिऐ। भलेहीं अपना लग नहियो रहल तैयो जहाँ-तहाँसँ आनि पुराइये दैत छिऐ। जइसँ समाजक सभ खुशी रहैए। आॅफिसक बात तँ पहिने कहि देलियह।’
उमाकान्त- ‘हमरा की करक चाही? किएक तँ जइ हिसाबे अहाँ कहलौं तइसँ हम्मर मन भटकि रहल अछि।’
मिश्रीलाल- ‘बौआ, जखन लाइसेंस बना लेलह तखन कमसँ कम एक खेप समान उठा कऽ बाँटि लाए। जइ सँ समाजोक चालि-ढ़ालि आ आॅफिसोक चालि-ढ़ालि देखि लेबहक। बेबहारिक ज्ञान भऽ जेतह। व्यवहारिके ज्ञान असली ज्ञान छिऐ। अखन हम एते मदति जरुर कऽ देबह जे तोरा कतौ अड़चन नै हेतह। मुदा दोसर खेपक भार हम नै लेबह। किएक तँ बुझिते छहक जे बिलाइ जे मूससँ दोस्ती करत तँ खाएत की? तोरो सीखैक अवसर भेटि जेतह।’
उमाकान्त- ‘बड़बढ़िया! जहिना अहाँ कहलौं तहिना हम करब।’
मिश्रीलाल- ‘बाउ, आब तँ हम बूढ़ भेलहुँ। जहिया हम सोलहे बरखक रही तहियेसँ डीलरी करै छी। मुदा पहिलुका आ अखुनकामे अकास-पतालक अंतर भऽ गेल अछि। जते धन आ शिक्षाक प्रसार भेल जा रहल छै ओते घटिया मनुक्ख सेहो बढ़ि रहल अछि। पहिने इमानदार लोक बेसी छल मुदा आब आंगुरपर गनए पड़तह। हम तँ डीलरीमे रमि गेलौं। सभ घाटक पानि पीनाइ सीखि नेने छी, तेँ नीक छी।’
उमाकान्त- ‘चलैत-चलैत किछु........।’
मिश्रीलाल- ‘जहिना आमक गाछ होइ छै जे आमक आँठीसँ जनमैत अछि। तहिना तँ मनुक्खोक होइ छै। दुनियाँमे जते मनुक्ख अछि, सभ तँ मुरुखे भऽ कऽ जन्म लैत अछि। मुदा एहिठाम जकरा जेहेन परिवार, समाज, वातावरण भेटैत छैक ओ ओहन बनैत अछि। जहिना आमक छोट-छोट सरही गाछकेँ नीक-नीक कलमी आमक गाछक डारिमे बान्हि कलम लगा नीक-नीक आम बना लैत, तहिना मनुक्खोक होइत। मुदा नीक परिवार, नीक समाज अछिये कतेक। अधिकांश तँ गेले-गुजरल अछि। ने सभकेँ भरि पेट खेनाइ भेटै छै आ ने नीक बात-विचार। तखन नीक मनुष्य बनत कोना? जाधरि नीक मनुष्य नहि बनत ताधरि नीक समाज कोना बनत? तखन तँ जएह अछि तेहिमे अपनाकेँ जते नीक बना जीबि सकी, वएह संतोषक बात। तोहूँ अखन सादा कागज जेकाँ साफ छह, तेँ हम चाहब जे गन्दा नहि हुअ। जेहेन विचार, हाथ होइत कर्म निकलतह तेहेन जिनगी हेतह। कियो शरीरांतकेँ मृत्यु बुझैत अछि आ कियो आत्माक हननकेँ। मनुष्यमे असीम शक्ति छिपल छैक, ओकरा जगबैक अछि। जे हमहूँ सरिया कऽ नहिये बुझै छिऐ।’
जहिना तेज हथियार हाथमे एलासँ सक्कत-सक्कत वस्तु कटैक हूबा बनि जाइत तहिना उमाकान्तोकेँ भेल।
ओ विचार केलक जे आब बैलगाड़ीक युग नञि रहल। मशीनक युग आबि गेल। तेँ हमहूँ अपना हाथसँ इन्जिने चलाएब।’

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