विदेह गोष्ठी: (१५ आ १६ अक्टूबर २०११ आ २२ आ २३ अक्टूबर २०११ केँ म्रैथिली बाल साहित्यपर अन्तिम परिचर्चा आ तकर सन्दर्भमे बाल साहित्य गोष्ठी निर्मली, जिला सुपौलमे भेल। ओतए ढेर रास विहनि बाल साहित्य लेखक आ साहित्यप्रेमी उपस्थित रहथि। तकर बाद किछु आलेख आ रचना डाक आ ई मेलसँ सेहो आएल। तकर संक्षिप्त विवरण नीचाँ देल जा रहल अछि।)
१
प्रोफेसर प्रेमशंकर सिंह
मैथिली बाल काव्यधारा
कविता सकल जीवनकेँ अपनामे समाहित करैत चमत्कारे नहि, प्रत्युत सत्योद्घाटन आ आत्मान्वेषण सेहो थिक। मैथिली काव्यधाराक सुदीर्घ परम्पराक अवगाहनोपरान्त प्रतिभाषित होइत अछि जे बाल काव्य-धारासँ कविताकार सर्वदा विमुख रहलाह। बाल-काव्य-धाराक इतिहास कतेक प्राचीन अछि ताहि विषयपर विवाद भऽ सकैत अछि, किन्तु सत्यता ई अछि जे ई एक नूतन विधाक रूपमे विकसित भेल जकर इतिहास विगत शताब्दीसँ प्रारम्भ होइछ, कारण एहिसँ पूर्व बाल साहित्यकेँ गम्भीरतासँ नहि अंगीकार कयल जाइत छल आ ई बुझल जाइत छल जे बाल-साहित्यक रचनाकार ओतेक प्रबुद्ध नहि होइत छथि, जतेक अन्य विधाक रचनाकार। किन्तु शनैः-शनैः ई धारणा अघोषित रूपसँ पोषित-पल्लवित कयनिहारकेँ पाछाँ हटय पड़लनि। समय ई सिद्ध कऽ देलक अछि जे बाल साहित्यक सृजनिहारकेँ साहित्यक अन्य विधाक तुलनामे अधिक मौलिकता अपेक्षित अछि। एतबे नहि शिशुक मनोविज्ञानकेँ जनबाक-बुझबाक क्षमता सेहो परमावश्यक अछि। बाल साहित्यान्तर्गत विशेष रूपसँ बाल-काव्य-धाराक प्रसंगमे कहल गेल धारणादिकेँ तोड़ि देलक आ एहि विधामे कविताकार अधिक उन्मुख भेलाह।
मैथिलीमे नव जागरणक सूत्रपात भेल बीसम शताब्दीमे जकरा स्वर्णयुगक नामे उद्घोषित कयल गेल आ बाल-काव्यधाराक दिशामे अन्वेषण आ अनुसन्धान स्वातंत्र्योत्तर कालमे सर्वाधिक कविताकार एक स्वस्थ वातावरणमे सृजनरत भेलाह। एही कालावधिमे साहित्य-चिन्तक लोकनि नूतन भावनासँ उत्प्रेरित भऽ मिथिलांचल एवं प्रवासी मैथिल जनसमुदाय बाल पत्रिकाक प्रकाशनक शुभारम्भ कयलनि। बाल पत्रिकाक प्रकाशनोपरान्त बाल साहित्यान्तर्गत बाल-काव्यधाराक प्रस्फुटन भेलैक जे मात्र पृथक विधोक रूपमे नहि प्रतिष्ठित भेल, प्रत्युत पूर्णतः शिशु काव्यक सृजनक परम्पराक सूत्रपात भेलैक तथा एकर नेओकेँ मजगूत करबाक दिशामे ओहि कविताकारकेँ उपेक्षाक दृष्टिएँ नहि देखल जा सकैछ।
वस्तुतः ई श्रेय आ प्रेय छैक स्वातन्त्र्योत्तर युगकेँ जखन बाल-पत्रिकामे “शिशु” (१९४९), “बटुक” (१९४९), “धीयापूता” (१९५७), “नेना भुटका” (१९९६) आ “बाल मिथिला” (१९९८) क प्रकाशनक शुभारम्भ भेलैक। उपर्युक्त पत्रिकादिक माध्यमे आरम्भिक युगक सम्भावना प्रारम्भ भेल। बाल पत्रिकाक अतिरिक्त अन्यान्य पत्रिकादिमे सेहो कविताकार उभरलाह जे शिशुक लेल शाश्वत काव्यक सृजन कयलनि। उपयुक्त पत्रिकादिमे शताधिक कविताकारक शताधिक काव्यधारा प्रवाहित भेल, किन्तु दुर्योगक विषय थिक जे कोनो काव्य-संग्रह प्रकाशमे नहि आबि सकल। पटनासँ प्रकाशित “मिथिला मिहिर” (१९६०) मे शिशुकेँ आकर्षित करबाक लेल तथा काव्य-यात्राकेँ प्रोत्साहित करबाक उद्देश्यसँ “नेना भुटकाक चौपाड़ि” नामे दुइ पृष्ठ अवश्य सुरक्षित कयलक, किन्तु ओहिमे बुझौअलि एवं चुटुक्काक संगहि संग यदाकदा कविता सेहो प्रकाशित भेल जे काव्य-यात्राकेँ आगाँ बढ़यबामे सहायक सिद्ध भेल। हँ, एतबा सत्य अछि जे बाल दिवसक अवसरपर ११ नवम्बर १९७९ क अंक एहि प्रवृत्तिक काव्य-धाराकेँ प्रोत्साहित करबाक दिशामे सफल प्रयासक शुभारम्भ कयलक।
मैथिली बाल-काव्य-धाराक शुभारम्भ जे मिथिलांचलक शिशुक मानसिक आ भावनात्मक पोषण कयलक; ओकर मुक्त हँसी, उमंग आ मिठगर खिलखिलाहटि काव्यमे प्रवेश पौलक। बाल गोपालक कल्पना आ जिज्ञासाक क्षितिजक विस्तार शनैः-शनैः होमय लागल आ ओकरा सहृदय व्यक्ति आ उत्तमोत्तम नागरिक बनबाक दिशामे जबर्दस्त नेओ देलक।
मैथिलीमे उपलब्ध बाल काव्यधाराकेँ दुइ श्रेणीमे विभाजित कऽ कए ओकर शृंखलाबद्ध इतिहासक लेखा-जोखा कयल जा सकैछ-
१.मौलिक काव्ययात्रा
२.अनूदित काव्ययात्रा
मौलिक काव्य-धाराक इतिहासमे विगत शताब्दीक नवम दशकमे दस्तक देलनि उपेन्द्र झा “व्यास” (१९१७-२००२)। हुनकर “अक्षर परिचय” (सत्येन्द्रनाथ झा, श्रीभवन, बोरिंग रोड, पटना, १९८४) प्रकाशमे आयल जाहिमे शैशवावस्थाक आँखिकेँ खोलबाक ओ उपक्रम कयलनि। एहिमे “अ” सँ “ज्ञ” धरि प्रत्येक वर्णपर सरल-सुबोध बाल-काव्यक सृजन कऽ ओ एकर विकास यात्रामे नव आयामक सृष्टि कयलनि। एहिमे कवि स्वदेश प्रेम, उपदेश, चेतावनी, आत्मरक्षा, मातृभाषा प्रेम, पाप-पुण्य आ जीवनक विविध रूपकेँ उद्घाटित कयलनि यथा-
जलमे बहुतो जीव रहैछ
झट दऽ करब नीक नहि होइछ
टटका जलसँ खूब नहाउ
ठकक संगमे ने पड़ी बाउ
डमरू डिमडिम बजाबी आनि
ढढ़क-ढढ़क नहि पीबी पानि
(अक्षर परिचय, पृष्ठ-३)
मैथिली बाल-काव्ययात्राक परिप्रेक्ष्यमे एकैसम शताब्दी विशेष उपजाऊ भूमि कहल जा सकैछ। एहि कालावधिमे बाल काव्यधाराक अभूतपूर्व विकास भेलैक आ कतिपय कविताकार एहि दिशामे उन्मुख भेलाह जे एकरा सम्वर्द्धित करबाक दिशामे प्रयास करब प्रारम्भ कयलनि। वर्तमान शताब्दीक प्रथम दशकमे लीक तोड़ि कऽ स्वतः बाल-काव्यधाराक अन्तर्गत सशक्त हस्ताक्षर कयलनि जनकवि जीवकान्त (१९३६) जनिक चारि बाल काव्य संग्रह गाछ झूल झूल (चतुरंग प्रकाशन, बेगूसराय, २००४), छाह सोहाओन (शेखर प्रकाशन, पटना (२००६), खीखिरिक बीअरि (किसुन संकल्प लोक, सुपौल, २००७) एवं हमर अठन्नी खसलइ वनमे (जखन-तखन, दरभंगा, २००९) प्रकाशमे आयल अछि जाहिमे कुल मिलाकऽ डेढ़ सयक लगधक कविता संकलित अछि। उपर्युक्त संग्रहादिक कवितादि बाल-काव्यधाराक समुचित प्रतिनिधित्व करैत अछि जाहिमे कवि बालमनक भावनाकेँ देखबाक प्रयास कयलनि अछि। उपर्युक्त कवितादि हृदयकेँ स्पर्श कयनिहार थिक जे शनै:-शनैः बाल मनकेँ हृदयस्पर्शी भऽ आगाँ बढ़ि जाइछ तथा पाठक ओकरा ताधरि देखैत रहैछ जाधरि ओ मानव चक्षुसँ अदृश्य नहि भऽ जाइछ। कवि पहिने स्वयंकेँ डुबौलनि अछि आ बाल मनकेँ डूबबाक हेतु विवश करैत छथि।
हिनक बाल-काव्य यात्राकेँ चारि भागमे विभाजित कयल जा सकैछ,
१.वात्सल्य भावमय
२.वात्सल्यक समय
३.शिशु बोध
४.शिशु कल्पना।
हिनक बाल-काव्यक सर्वगम्यता आ सहज संवेद्यता सोझ अभिव्यक्तिक कारणेँ नहि, प्रत्युत जीवन प्रसंगक भूमिकामे कोनो एक भावक्षणकेँ उपस्थित करबाक कारणेँ ओहिमे ओ गुण उत्पन्न भेल अछि, जकरा हम सहज मानवीयता कहि सकैत छी। जीवनक विविध यथार्थ प्रसंगसँ सम्बन्धित संवेदनात्मक प्रतिक्रिया हिनक बाल-काव्यक मूलाधार हैबाक संगहि संग हुनक व्यक्तित्वक विशेषतादिपर हमर दृष्टि केन्द्रित भऽ जाइत अछि। स्थल-स्थलपर एहन अनुभव होइत अछि जेना ओ अपन भावकेँ वैक्यूममे राखि कऽ पुनः ओहिपर काव्य सृजन नहि कयलनि, प्रत्युत टटका सम्वेदनात्मक प्रतिक्रियाकेँ सहज रूपेँ पद्यबद्ध कयलनि। सम्भवतः एहने टटका सम्वेदनात्मक प्रतिक्रियादिकेँ सहज रूपसँ काव्यमे महत्व दऽ कए पद्य-बद्ध कऽ प्रक्रियामे ओ बाल-काव्य-यात्रा अन्तर्गत हस्ताक्षर कयलनि। हिनक बाल कवितादिमे खेलकूद, पढ़ाइ-लिखाइ, प्राकृतिक सुषमाक विविध स्वरूप, विविध जीवनोपयोगी सामग्री, बाध-वन, सर-सम्बन्धी, जीव-जन्तु, इतिहासोद्भव महापुरुषक जीवन वृत्तान्त आ आपसी लड़ाइ-झगड़ा सब हुनका सोझाँ होइत छनि आ अपन आनन्दी स्वभावक कारणेँ हुनका एहि सबमे रस-बोध भेलनि।
जीवकान्तक साहित्यिकता अपन सभ्यता-संस्कृति आ भाषाक संग अपनत्वक संगहि काव्यात्मक अनुभव तथा भाषाक रचनात्मक प्रयोग थिक। इएह कारण अछि जे हुनक अपन पृथक् रंग, पृथक् पहचान तँ छनिहे जे ओ परम्परागत व्यञ्जनाक संग नव बात कहबाक उपक्रम कयलनि। ओ अनुभव सत्यकेँ सार्थक एवं रचनात्मक आयाममे बाल-काव्य यात्रा कयलनि। ओ अपन सोचकेँ, काव्य-यात्राकेँ एक नव क्षितिजक अन्वेषण करैत, यथार्थसँ सरोकार रखैत, विसंगति आ विद्रूपताक बीच रस्ता बनबैत सार्थक जीवन मूल्यकेँ स्थापित करबाक अनवरत प्रयासमे लागल छथि। हिनक बाल-काव्य-यात्राक प्रक्रियाक केन्द्र थिक बाल-मन जाहिमे कवि परिश्रमक महत्ताकेँ प्रतिपादित करैत ओकर मनकेँ एहि दिस आकर्षित कयलनि अछि,
देअए जीवन उत्सव तत्व
जीवन थिक बड़का टा उत्सव
खटने सभ सुख पाबी
खटबे थिक देशक आजादी
खटिकए स्वर्ग बसाबी
(हमर अठन्नी खसलइ वनमे, पृष्ठ-३४)
जीवकान्तक बाल-काव्य-यात्राक अनुशीलन आ मननसँ स्पष्ट अछि जे लोकसाहित्यान्तर्गत शिशुसँ सम्बन्धित लोक प्रचलित कहबी अछि, ताहिसँ ओ पर्याप्त अनुप्राणित छथि यथा गाछ झूल-झूल मे पीपर, बिरिछ तर, झोंकी हवामे, जामु, बाघक मौसी इत्यादि उपर्युक्त परिवेशमे रचित अछि। बच्चा सब कहैत अछि:
मैनाक बच्चा सिलौरीया रे
दू गो जामुन गिरा दे
उपर्युक्त भावसँ अनुप्राणित भऽ ओ बाल-काव्य सृजन कयलनि:
जुमा-जुमा कए ढेपा मारहि
जामु गिरा दे, बबलू भैया
कारी-कारी जामु खसाबहि
गाछ झखा दे, बबलू भैया
(गाछ झूल-झूल, पृष्ठ-२८)
मैथिलीक विपुल लोकोक्तिक प्रभाव हिनक काव्य-यात्रामे दृष्टिगत होइछ यथा:
जाड़ बड़ जाड़, गोसाइँ बड़ पापी
तपते खिचड़ि खुआ दे गे काकी
(मैथिली लोकोक्ति कोश, पृष्ठ-३१०)
उपर्युक्त लोकोक्तिसँ अनुप्राणित भऽ ओ बाल काव्य-यात्राक श्रीगणेश कयलनि यथा:
टटका पानि झाँपि कए राखी
फटकि बना कए चाउर बेराबी
पीरा-पीरा दाल दरड़ि ली
अल्लू-कोबी काटि मिलाबी
चूल्हि पजारि धरी टोकनीमे सभ सामिग्री
मद्धिम धाह पानि टभकाबी
हरदि जोग दए पियर बना दे
अटकरसँ किछु नोन खसाबी
जीर-तेलकेँ धाह देखा कए, सोन्ह बनबिहेँ
छौंकि-सानि कए मझनी हमरा लेल परसि दे
खिच्चड़ि खा गरमयलहुँ, से हम नहिए कापी
तपते खिच्चड़िसँ, टनकओलनि ललकी काकी
(गाछ झूल-झूल, पृष्ठ-५५)
वस्तुतः शिशु काव्य-धारामे यथार्थतः वैह कवि प्रविष्ट कऽ सकैत छथि, जनिका भाषापर अद्भुत् अधिकार छनि आ वैह सफल भऽ सकैत छथि जे बाल सुलभ चंचलताक संगहि शब्दाडम्बर विहीन भाषाक प्रयोगमे सिद्धहस्त छथि। वस्तुतः कवितामे भाषा नहि, प्रत्युत शब्द होइत अछि। शब्द-अर्थ आ अन्तर्निहित ध्वन्यात्मक लयकेँ जीवकान्त सूक्ष्मताक संग चिन्हलनि आ ओकर सहज अभिव्यक्तिक सादगीमे बदलबाक क्षमता रखैत ओ बाल-काव्यकला रूपकेँ प्रभावित कयलनि।
जीवकान्तक बाल-काव्य-धारा समकालीन काव्य-धारासँ सर्वथा पृथक् अछि। दैनंदिन जीवनक छोटसँ छोट घटनादि आ जीवन स्थितिक हल्लुक निजी स्पर्श पाबि कऽ स्वयं कविताक शक्ल धारण कऽ लेलक अछि। हुनक दृष्टिकोण स्पष्ट अछि आ बिनु कोनो रूढ़िकेँ अपन गढ़ल मुहाबरासँ ओ अपन बात बाल-काव्यमे कहलनि अछि। हिनक बाल-काव्य पारिवारिक आ आत्मीय ऊष्माक काव्य थिक। हिनक काव्यमे जीवन्त व्यक्तिक बोली-चालीक छवि प्रस्तुत करैत अछि। हुनक एहि प्रवृत्तिक काव्य भाषा आ मुहाबराक एहन हिस्सा बनि गेल अछि जे समकालीन काव्य-भाषाक अनुपम उदाहरण अछि। स्वाभाविक रूपसँ हिनक बाल-कवितामे रोजमर्राक, हमर दिनचर्या आ घरौआ जीवनक वस्तुजात सदैव उपस्थित रहल अछि। जतय धरि उपमादि आ रूपकमे उपर्युक्त वस्तुक प्राथमिकता अछि जेना देहरी, जुत्ता-चप्पल, डोलमडोल, किकिआइ, झक्कड़, मुहदूबर, सुटकल, विलायल, छिच्चा, छिछरी, भरोस, नोछरा-नोछरी, सकचुन्नी, रोइयाँ, मछरी, फाँक, कटारी, पछारी, खत्ता, ठेलमठेला, उछाह, अगुताइ, रकटल, बेरबाद, लिबलिब, लसकल, फनकइ, पथार, गाछ-बिरीछ, अनघोल, फलिया, गाय, बकरी, बनैया, नेसइ, खोंटब, औंघी, सुटुकि, वेथा, घाम, घमौरी, भीड़-भरक्का, पतनुकान इत्यादिक उपस्थिति बालोचित सिद्ध करैत अछि।
हिनक बाल-काव्यमे एक रहस्यपूर्ण, नैसर्गिक गीतमयता अछि जे स्वयं बिम्ब, कथ्य, रूपक शब्द चयन आ कथनक भंगिमा अत्यन्त चमत्कारी रहितहुँ सरल आ हृदयस्पर्शी अछि। जीवनक छोट-छोट अनुभव, प्राकृतिक दृश्य हुनक कवितामे एक नव स्फुरणक संग मुखरित भेल अछि। एहि काव्यमे हिनक आत्मा, मनःस्थिति आ मानसिक व्यथा इत्यादिक वैयक्तिक कल्पना-प्रधानता उपलब्ध होइत अछि। हिनक बाल-काव्य-धारामे मिथिलांचलक आडम्बरहीन हरियर कचोर ग्रामीण परिवेशक अद्भुत् सामंजस्य अछि जतय ओ जीवन व्यतीत कऽ रहल छथि।
जीवकान्तक बाल कविताक वैशिष्ट्य थिक जे ओहिमे बच्चा सदृश टटका सम्वेदना, ओकर चंचलता तथा चिदानन्द भावक प्राचूर्य अछि। एहि दृष्टिएँ अनुशीलनोपरान्त ई स्वीकार करय पड़ैछ जे मैथिलीमे हिनक बाल-काव्य-धारा अनुपम धरोहर थिक।
वर्तमान दशकमे मैथिली बाल-काव्यधारामे बहुविधावादी प्रतिभासम्पन्न युवा कवि सशक्त हस्ताक्षर कयलनि ओ थिकाह गजेन्द्र ठाकुर (१९७१) जे प्रवासी रहितहुँ मातृभाषानुरागसँ उत्प्रेरित भऽ एहि क्षेत्रमे अपन उपस्थिति दर्ज करौलनि जनिक शताधिक बाल कवितादि “कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक” (२००९) मे संकलित अछि। एहिमे संग्रहित समस्त कवितादिक विषय-वैविध्यकेँ उद्घाटित करैत कवि बालमनक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, ओकर नानाविध औत्सुक्य, प्रसन्नता, टीस, वेदना, प्राकृतिक सुषमा, बालोचित चांचल्य, वर्षा, रौद-बसात, खेलकूद, बाल श्रमिकक वेदना, किंडर गार्टेन स्कूलक क्रिया-कलाप, अवकाश भेलापर प्रसन्नता, खूजल रहलापर अप्रसन्नता तथा स्कूल जयबामे हनछिन करब आदि-आदि भावक विश्लेषण कवि अत्यन्त सूक्ष्मताक संग विलक्षण ढंगे कयलनि अछि। शिशुकेँ पितामह आ मातामहक अधिक स्नेह भेटैछ, जाहि कारणेँ हुनका सभक लग रहबाक ओ बेसी आकांक्षी रहैछ, कारण ओ दुलार-मलार ओकरा समयाभावक कारणेँ पारिवारिक परिवेशमे अन्य सदस्यसँ नहि भेटि पबैछ। ओकर विविध जिज्ञासाक यथोचित उत्तर ओकरा ओतहि भेटैछ, जाहि कारणेँ ओ सतत हुनका सभक समीप रहब पसिन्न करैछ।
बालमन एतेक बेसी सेनसेटिभ होइछ जे सामाजिक परिवेशकेँ देखि ओकरा आत्मबोध भऽ जाइछ सम्पन्नताक आ विपन्नताक। तकर यथार्थ स्थितिक चित्रण निम्नांकित पंक्तिमे कवि कयलनि अछि यथा-
गत्र-गत्र अछि पाँजर सन
हड्डी निकलल बाहर भेल
भात धानक नहि भेटय तँ
गद्दरियोक किए नहि देल
औ बाबू गहूमक नहि पूछू
अछि ओकर दाम बेशी भेल
गेल ओ जमाना बड़का
बात गप्पक नहि खेलत खेल
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.१३७)
बालमनक प्रसन्नताक भाव कवि व्यक्त कयलनि अछि जखन ओकरा स्कूल जयबासँ छुट्टी भेटि जाइछ, तकर दिग्दर्शन तँ करू:
आइ छुट्टी
काल्हि छुट्टी
घूमब-फिरब जाएब गाम
नाना-नानी मामा-मामी
चिड़ै-चुनमुनी सभसँ मिलान
बरखा बुन्नी आएल
मेघ दहोदिस भागल
कारी मेघ उज्जर मेघ
घटा पसरल
चिड़ै-चुनमुनी आएल
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.८५)
हाथीकेँ जखन शिशु प्रथमे प्रथम देखैछ तँ ओ आश्चर्यित भऽ अकस्मात प्रफुल्लित भऽ जाइछ ओ सहसा बाजि उठैछ, हाथीक सूप सन कान” (कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.८४) आ “हाथीक मुँहमे लागल पाइप” (कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.७१)
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बाल श्रमिकक व्यथा सेहो सोझाँ आएल अछि। जेना-
फेर आएल जाड़
कड़कराइत अछि हार
बिहारी!!
लागए-ये भेल भोर
गारिसँ फेर शुरू भेल प्रात
बिनु तैय्यारी
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.९०)
जतेक दूर धरि भाषा प्रयोगक प्रश्न अछि एहिमे युवा कवि अपन उदार प्रवृत्तिक परिचय देलनि। भूमण्डलीकरणक फलस्वरूप भिन्न-भिन्न भाषादिक बहुप्रचलित हल्लुक शब्दादि मैथिलीमे धुड़झाड़ प्रयोग भऽ रहल अछि तकरा शिशु कोना आत्मसात कऽ अन्तर्राष्ट्रीय भाषा सीखि जाइछ, तकर कतिपय उदाहरण एहि कवितादिमे यत्र-तत्र उपलब्ध होइत अछि। शिशु अपन तोतराइत बोलीमे एहन-एहन शब्दकेँ अनुकरण करबाक प्रयास करैछ जकर फलस्वरूप ओकर भाषा ज्ञानक विस्तार अनायासे भऽ जाइछ तकर कतिपय उदाहरण एहिमे भेटि जाइछ, यथा:
ट्रेन गाड़ी धारक कातमे
आएल स्टेशन छुटल बातमे
ट्रेन चलल दौगल भरि राति
सुतल गाछ बृच्छ भेल परात
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.६३)
अत्याधुनिक परिवेशमे शिशुकेँ अत्यधिक लगाव खेल-कूदमे भऽ गेलैक अछि जे ओ अपन पुश्तैनी खेल सर्वथा बिसरि गेल अछि आ पाश्चात्य खेलक प्रति आकर्षित भऽ गेल अछि। कवि बालकक एहि चंचलताक विश्लेषण एहि प्रकारेँ कयलनि अछि:
हम बाबा करू की पहिने
बॉलिंग आकि बैटिंग
बॉलिंग कय हम जायब थाकि
बैटिंग करि हम खायब मारि?
पहिले दिन तूँ भाँसि गेलह
से सूनह ई बात बौआ
बैटिंग बॉलिंग छोड़ि छाड़ि
पहिने करह गऽ फील्डिंग हथौआ
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.१२१)
हिनक काव्य भाषा अत्यन्त विस्तृत आ व्यापक अछि जकर प्रयोग ओ कयलनि अछि। महानगरीय परिवेशमे रहितहुँ मैथिलीक ठेंठसँ ठेंठ शब्दादिक प्रयोग ओ अत्यन्त निपुणताक संग कयलनि अछि यथा गाछ-पात, भोरे-सकाल, झहराउ, हियाउ, फुसिये, लुक्खी, खिखीर, पीचल, सुन्न, ढहनाइत, झलफल, सूप, इयार, चाली, छागर, बुरबक, खगता, जलखै, बोन, घटक, गरिपढ़ुआ, थलथल, औंटब, मसौसि, पुरखा, अधखिजू, कोपर, सटका, खौंझाइ, लजकोटर, मुहचुरु, कथूक, दीयाबाती, घटकैती, झड़कलि, धमगिज्जर, चोरुक्का आदि-आदि।
युवा कविक गतिशीलताकेँ देखि लगैछ जे भविष्यमे हिनक कवित्व शक्ति आर अधिक विकसित होयतनि, कारण ओ एखन पुष्पक कली सदृश मैथिली बाल-काव्यक संगहि संग वयस्कोक हेतु पर्याप्त मात्रामे काव्य सृजन कयलनि अछि जे आलोकमय थिक।
अनूदित बाल-काव्य-धारा
मैथिलीमे बाल काव्य-धाराक द्वितीय पड़ावक नव अध्यायक सूत्रपात भेल अनूदित काव्य-धारासँ। सहज आ सम्प्रेषणीय अनुवाद मूल लेखनसँ कठिन काज थिक आ ताहूमे कविताक अनुवाद तँ औरो कठिन थिक। पूर्वांचलीय आर्य भाषामे बाङला आ मैथिली एकहि परिवारक भाषा हैबाक कारणेँ एकर समग्र विशेषतादिक संगहि अपन निजी वैशिष्ट्य रखैत अछि। यद्यपि दुनूक संस्कृतिमे समानता रहितहुँ किछु सांस्कृतिक वैषम्य अछि जाहि कारणेँ शब्दाडम्बरक भिन्नता अछि।
बाल-काव्य यात्रान्तर्गत एक नव जागरणक उद्भावना भेल जे समीपवर्ती बाङला भाषा आ साहित्यक विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर (१८६१-१९४१) क अर्द्धशतक काव्य एवं गीत “रवीन्द्रनाथक बाल साहित्य” (साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, १९९७) प्रकाशमे आयल जकर अनुवादक छथि उदयनारायण सिंह “नचिकेता” (१९५१)। विश्व सृष्टिक नवकर्म सहयोगी एहन कवि बाङला साहित्यक हजार वर्षक इतिहासमे आविर्भूत भेलाह जे एक प्रान्तीय भाषामे बाल-काव्य-धारा प्रवाहित कयलनि जे समस्त भारतीय बाल-काव्य-धारामे सर्वकालिक बालोचित आनन्द, चिन्ता आ जिज्ञासा मे सम्पूर्ण भारतीय भाषा-भाषीक वाणीमे समाहित भऽ गेलाह। मैथिलीमे अनूदित हिनक बाल कविता एहि विषयक साक्षी थिक जे ओ समग्र भारतीय भाषाक कविक रूपमे प्रतिष्ठित भऽ गेलाह जे समस्त देशक सब कालक संग आनन्द-चिन्ताक भाव हुनक बाल-काव्य-धाराक प्रमुख बिन्दु थिक। रवीन्द्रनाथ जीवनक सभ स्तरक कवि, ऋगवेदक भाषामे ओ “कविनामं कवितमः” रूपेँ प्रख्यात भऽ गेलाह।
रवीन्द्रकेँ शिशुक प्रति अगाध प्रेम छलनि। ओ शिशुक संग प्रेमे नहि करैत रहथि, प्रत्युत ओकरापर अगाध विश्वास सेहो करैत, समानरूपेँ आदर करैत रहथि, तकर कारण छल जे ओ शैशवावस्थामे मातृप्रेमसँ विमुख रहलाह। इएह कारण थिक जे ओ शिशु-काव्य-धाराक अन्तर्गत एहि भावनाकेँ व्यक्त करबामे कनियो कुंठित नहि भेलाह। हुनक मान्यता छलनि जे शिशु नादान, अबोध, मूर्ख नहि, प्रत्युत बुझनुक होइत अछि। हुनका एहि विषयक विश्वास छलनि जे गम्भीरसँ गम्भीर विषयकेँ सरल बना कऽ बुझाओल जाय तँ कठिनसँ कठिन विषयकेँ ओ सुगमतापूर्वक आत्मसात कऽ सकैछ। शिशुक संग शिशु बनि कऽ ओकरा सभक संग खेलायल जाय वा वार्तालाप कयल जाय तँ ओकरा सभक वास्तविक गुणक विकास सहजतापूर्वक भऽ सकैछ।
मूल बाङला बाल-काव्य एवं गीत संग्रहसँ मैथिलीमे “चैताली” (१८९६), “कणिका” (१८९९), “कथा ओ कहिनी” (१९००), “नैवेद्य” (१९०१), “शिशु” (१९०३), “उत्सर्ग” (१९१४), “शिशु भोलानाथ” (१९२२), “चित्र-विचित्र” (१९३३), “खाप छाड़ा” (१९३७), “गीत वितान” (१९४१-४२) एवं “सहजपाठ भाग एक एवं दू” सँ बीछल बेरायल अनूदित रूप प्रकाशमे आयल अछि। वर्षासँ सम्बन्धित रवीन्द्र प्रथमे प्रथम शिशु काव्यक सृजन कयलनि यथा:
विस्टि पड़े टापर टुपुर नदे एलो वान।
शिव ठाकुरेर विये हवे तिन कन्यादान॥
उपर्युक्त काव्यांशक अनुवाद मैथिलीमे नहि भेल अछि। मैथिलीमे वर्षासँ सम्बन्धित “मेघ बरखा टिपिर टिपिर टप” अनूदित भेल अछि तकर मूल रूप निम्नस्थ अछि:
दिनेर आलो निमे एलो सुज्जि डोवे डोवे।
आकाश जुड़े मेघ जुटे छे चाँदेर लोभे लोभे।
मेघेरे उपर मेघ कोरेछे रङ्गोर उपर अङ्ग।
मन्दिरे ते काँसार घण्टा बाजलो ढङ्ग ढङ्ग।
उपयुक्त काव्यांशक अनूदित रूप निम्नस्थ अछि:
बुझल इजोत दिवस केर सूरज
एखनहि डूबल हाय
मेघ जुटल अछि चानक लोभें
व्योम लोक धरि जाय
मेघक ऊपर मेघ धरल अछि
रंगक ऊपर रंग
मंदिर मध्यक काँसा घण्टा
मंद्रित शब्द-तरंग।
उपर्युक्त काव्यांशक अन्तिम पंक्तिक अनुवाद अनुवादक सही नहि कऽ पौलनि। “मंद्रित शब्द-तरंग”क बदलामे “काँसा घण्टा- बाजल ढन-ढन” उपयुक्त होइत।
रवीन्द्रक बहुचर्चित आ बहु प्रशंसित काव्य थिक “पुरातन भृत्य” जकर प्रारम्भिक मूल बाङला रूप निम्नस्थ अछि:
भूतेर मतन चेहरा जे मन, निर्बोध अति घोर।
जे किछु हाराय गिन्नी बलेन, केष्टा बेरा चोर।
उठिते बसिते करिपान्तो शुनओ ना शुने काने।
कत पाय बेंत ना पाय वेतन, तबुना चेतन माने।
उपर्युक्त काव्यांशक मैथिलीमे अनूदित रूप निम्नस्थ अछि:
भूत जकाँ चेहरा ओकर, निर्बोध अतिघोर।
जे किछु हेराय कोसथि घरनी “किसुने निश्चये चोर”।
उठइत सुतइत गारिक बरखा, नहि दइ छइ ओ काने।
खाइ छइ बेंत ने पाबै वेतन, तहुँ नइ चेतन मानै।
अनूदित अंशक किछु शब्द एहन अछि जाहिपर सहसा आपत्ति होइत अछि। जेना “निश्चये”क स्थानपर “बेरहि”, “सुतइत”क स्थानपर “बैसइत”, बरखाक स्थानपर “दैत छी”, “नहि दइ छइ ओ काने”क स्थानपर “तइयो ने सुने”, “खाइ छी”क स्थानपर “मारै छी”, “ने पबे वेतन”क स्थानपर “ने दै छी वेतन” तथा “तहु नइ चेतन” क स्थानपर “तइयो नइ चेते” उपयुक्त होइत।
रवीन्द्रक शिशुसँ सम्बन्धित काव्य-यात्रामे मानवताक सम्भवतः सबसँ आदिम आ असंदिग्ध रूप मौलिक भाव वात्सल्यक अज्ञात गाम्भीर्यकेँ उद्घाटित करैत अछि। धियापूताक दुग्रह्यि चारुतत्व, ओकर अनुमेय व्यवहार ओ प्रसन्नतादायक चंचलता, ओकर तर्कातीत कल्पना आ ओकर अमूर्त्त कारुणिकता एहि सबमे कविकेँ विश्वक सर्जनात्मक जीवनक स्पन्दनक अनुभव भेल छनि। वैष्णव पद सबमे बालकक प्रति स्नेह आ श्लाघाकेँ काव्यात्मक स्वीकृति भेटल छलैक। परन्तु ओहि ठामक बालक सामान्य बालक नहि भऽ ईश्वरक अवतार अछि मानव शिशुक ऊपरमे। टैगोरक काव्यमे कोनो प्रकारक देवत्वारोपण नहि छैक, प्रत्युत शाश्वत रूपेँ निर्गत जीवनक चेतनाक रूपमे मानव शिशुक साधारणीकरण अछि। शिशु सम्बन्धी कतोक कवितादि नेना-भुटकाक हेतु उपयुक्त अछि। वस्तुतः ओहिमे किछु रचना हुनक मातृहीन पुत्र-पुत्रीक हेतु रचल गेल छल।
हिनक शिशु काव्यक वैशिष्ट्य थिक जे ओहिमे फराक-फराक भाव स्थितिक चित्रण भेल अछि जे कविक अन्तरक बाल मनकेँ उद्घाटित करैत अछि। कवि विश्वकेँ एहन उदास बालकक आँखिए लालसापूर्वक देखैत छथि जकरा ओकर इच्छाक अनुरूप घुमबा-फिरबाक अनुमति नहि हो। बाल गीत शैलीमे ओ छोट-छोट कवितादि सेहो लिखलनि जकर विशेषता थिक जे ओ वयस्को द्वारा समान रूपेँ आस्वाद्य अछि। बाल काव्यान्तर्गत ओ विस्तारपूर्वक नाटकीय शैलीमे खिस्सा कहलनि, जकर कथ्य सामान्यतः ग्राह्य अछि। रवीन्द्र बौद्ध साहित्यमे संगृहीत दन्त कथाक माहात्म्य आ नाटकीय मूल्यक प्रति ध्यानाकर्षित कयलनि। एकरा माध्यमे कवि भारतक शानदार चित्रक कल्पना कयलनि जे अज्ञात आ अकर्मण्यताक व्यामोहसँ जागि रहल अछि। ओ शिशु काव्यमे काव्यात्मक कल्पनाक रुझानक संगहि शिशुक विविध प्रसंगकेँ उद्घाटित कयलनि अछि।
“गीत वितान”सँ जतेक गीत एवं काव्यक अनूदित रूप पाठकक समक्ष अछि से ओ मुख्यतः गीताञ्जलि (१९१०), गीतमाल्य (१९१४) एवं गीतालि सँ लेल गेल अछि। एकर वैशिष्ट्य अछि जे ओ जतबे मात्रामे कविता अछि ओ ततबे मात्रामे गीत सेहो। वस्तुतः हिनक काव्यमे प्रायः प्रगीत आ गीतक बीचमे कोनो विभाजन रेखा नहि खीचल जा सकैछ। अपन अद्भुत सांगीतिक प्रतिभासँ ओ अपन किछु विस्तृत आ कठिन कवितादिकेँ सफलतापूर्वक संगीतमे बान्हि देने रहथि। एहिमे हुनक भावनात्मक लालसा मुखर आ स्थायी अछि, छन्द अधिक सहज अछि आ बिम्ब विधान उत्कृष्ट।
बाङला भाषा भाषी शिशुकेँ शिक्षित करबाक भावनासँ उत्प्रेरित भऽ ईश्वरचन्द्र विद्यासागर (१८२०-१८९१) बाल पाठक शृंखला प्रारम्भ कयने रहथि तकरा अग्रसर करबाक उद्देश्यसँ रवीन्द्र शिशुक मानसिकताक संगहि आकर्षक ढंगसँ दुइ खण्डमे सहजपाठक रचना कयलनि। एहिमे सहज सुबोध वर्णमालाक परिचय अछि जे बच्चा सभक लेल पाठ अछि जे संयुक्ताक्षर विहीन आ संयुक्ताक्षर सहित अछि।
रवीन्द्रक उपलब्ध काव्य-धाराक प्रभाव परवर्ती काव्यधारापर अवश्य पड़ल जकर फलस्वरूप अन्यान्य भाषाक शिशु कविता मैथिलीमे अनूदित भेल। किन्तु एहि तथ्यकेँ स्वीकार करबामे कोनो तारतम्य नहि होइछ जे रवीन्द्र जाहि भावधारा, भाषा आ छन्द विन्यास कयलनि ओहि सबपर सम्यक रूपेँ विचार कयलासँ प्रतिभाषित होइछ जे अनुवादक यथार्थतः ओकर मर्मकेँ स्पर्श नहि कऽ पौलनि। अतएव समग्ररूपेँ अनुशीलनोपरान्त कतिपय एहन स्थल अछि जतय अनुवादककेँ मैथिलीक उपयुक्त शब्दावली नहि उपलब्ध भऽ पौलनि ततय ओ एहन-एहन शब्दादिक प्रयोग कयलनि जे ने तँ मैथिलीक थिक आ ने तँ बाङलाक। रवीन्द्र बाल-काव्य एहि विषयक साक्षी थिक जे देशकेँ सबल राष्ट्र बनयबाक उद्देश्यसँ शान्तिनिकेतनक स्थापना कयलनि।
मैथिली बाल-काव्य-धाराक मौलिक एवं अनूदित स्वरूपपर विचार कयलापर ई कहल जा सकैछ जे ई एखन शैशवावस्थामे अछि। एहि विधाकेँ एक सुनिश्चित स्वरूप प्रदान करबाक निमित्त वर्तमान सन्दर्भमे प्रयोजनीय अछि जे कविताकार लोकनिकेँ एहि विधाकेँ शैशवावस्थासँ प्रौढ़ावस्थामे अनबाक दिशामे सबल आ सुदृढ़ बनयबाक दिशामे सयत्न प्रयास करबाक प्रयोजन अछि जे ई साहित्यक अन्यान्य विधादिक समकक्ष आबि टक्कर लऽ सकत। एतबा सत्य अछि जे बाल-काव्य शिक्षाप्रद आ साहित्यक प्रति ममत्व जागृत करबाक दिशामे अहं भूमिकाक निर्माण कऽ सकैछ से हमर विश्वास अछि।
२
गजेन्द्र ठाकुर
मैथिलीक सन्दर्भमे बाल साहित्य-
बाल साहित्य लेखकसँ अनुरोध जे ङ आ ञ क प्रयोग करथि जाहिसँ बच्चाकेँ सुविधा होएत। नञि आ नै दुनू बाल साहित्यमे लिखल जा सकैए। भाङ लिखल जएबाक चाही, भांग नै। फेर छनि केँ बच्चा छनी पढ़ैए, वर्कशापमे एहन देखल गेल से छन्हि, कहलन्हि आदि प्रयोग करू। ई तीन टा मात्र उदाहरण अछि जे मैथिली बाल साहित्यक लेखनमे संयुक्ताक्षर, ञ, आ ङ क प्रयोग भाषाक विशिष्टता काएम रखबामे सहायक होएत।
तहिना सरल शब्द मुदा खाँटी मैथिली शब्द जेना अकादारुण आदिक प्रयोग करू।
बाल साहित्यमे गद्य आ पद्य दुनू महत्वपूर्ण अछि जँ कही तँ पद्य कने बेशिये। गद्यमे कथामे आन विषयक समावेश जेना विज्ञान, समाज विज्ञान आदि देलासँ मनोरंजन आ शिक्षाक मध्य तालमेल भऽ सकत।
१
प्रोफेसर प्रेमशंकर सिंह
मैथिली बाल काव्यधारा
कविता सकल जीवनकेँ अपनामे समाहित करैत चमत्कारे नहि, प्रत्युत सत्योद्घाटन आ आत्मान्वेषण सेहो थिक। मैथिली काव्यधाराक सुदीर्घ परम्पराक अवगाहनोपरान्त प्रतिभाषित होइत अछि जे बाल काव्य-धारासँ कविताकार सर्वदा विमुख रहलाह। बाल-काव्य-धाराक इतिहास कतेक प्राचीन अछि ताहि विषयपर विवाद भऽ सकैत अछि, किन्तु सत्यता ई अछि जे ई एक नूतन विधाक रूपमे विकसित भेल जकर इतिहास विगत शताब्दीसँ प्रारम्भ होइछ, कारण एहिसँ पूर्व बाल साहित्यकेँ गम्भीरतासँ नहि अंगीकार कयल जाइत छल आ ई बुझल जाइत छल जे बाल-साहित्यक रचनाकार ओतेक प्रबुद्ध नहि होइत छथि, जतेक अन्य विधाक रचनाकार। किन्तु शनैः-शनैः ई धारणा अघोषित रूपसँ पोषित-पल्लवित कयनिहारकेँ पाछाँ हटय पड़लनि। समय ई सिद्ध कऽ देलक अछि जे बाल साहित्यक सृजनिहारकेँ साहित्यक अन्य विधाक तुलनामे अधिक मौलिकता अपेक्षित अछि। एतबे नहि शिशुक मनोविज्ञानकेँ जनबाक-बुझबाक क्षमता सेहो परमावश्यक अछि। बाल साहित्यान्तर्गत विशेष रूपसँ बाल-काव्य-धाराक प्रसंगमे कहल गेल धारणादिकेँ तोड़ि देलक आ एहि विधामे कविताकार अधिक उन्मुख भेलाह।
मैथिलीमे नव जागरणक सूत्रपात भेल बीसम शताब्दीमे जकरा स्वर्णयुगक नामे उद्घोषित कयल गेल आ बाल-काव्यधाराक दिशामे अन्वेषण आ अनुसन्धान स्वातंत्र्योत्तर कालमे सर्वाधिक कविताकार एक स्वस्थ वातावरणमे सृजनरत भेलाह। एही कालावधिमे साहित्य-चिन्तक लोकनि नूतन भावनासँ उत्प्रेरित भऽ मिथिलांचल एवं प्रवासी मैथिल जनसमुदाय बाल पत्रिकाक प्रकाशनक शुभारम्भ कयलनि। बाल पत्रिकाक प्रकाशनोपरान्त बाल साहित्यान्तर्गत बाल-काव्यधाराक प्रस्फुटन भेलैक जे मात्र पृथक विधोक रूपमे नहि प्रतिष्ठित भेल, प्रत्युत पूर्णतः शिशु काव्यक सृजनक परम्पराक सूत्रपात भेलैक तथा एकर नेओकेँ मजगूत करबाक दिशामे ओहि कविताकारकेँ उपेक्षाक दृष्टिएँ नहि देखल जा सकैछ।
वस्तुतः ई श्रेय आ प्रेय छैक स्वातन्त्र्योत्तर युगकेँ जखन बाल-पत्रिकामे “शिशु” (१९४९), “बटुक” (१९४९), “धीयापूता” (१९५७), “नेना भुटका” (१९९६) आ “बाल मिथिला” (१९९८) क प्रकाशनक शुभारम्भ भेलैक। उपर्युक्त पत्रिकादिक माध्यमे आरम्भिक युगक सम्भावना प्रारम्भ भेल। बाल पत्रिकाक अतिरिक्त अन्यान्य पत्रिकादिमे सेहो कविताकार उभरलाह जे शिशुक लेल शाश्वत काव्यक सृजन कयलनि। उपयुक्त पत्रिकादिमे शताधिक कविताकारक शताधिक काव्यधारा प्रवाहित भेल, किन्तु दुर्योगक विषय थिक जे कोनो काव्य-संग्रह प्रकाशमे नहि आबि सकल। पटनासँ प्रकाशित “मिथिला मिहिर” (१९६०) मे शिशुकेँ आकर्षित करबाक लेल तथा काव्य-यात्राकेँ प्रोत्साहित करबाक उद्देश्यसँ “नेना भुटकाक चौपाड़ि” नामे दुइ पृष्ठ अवश्य सुरक्षित कयलक, किन्तु ओहिमे बुझौअलि एवं चुटुक्काक संगहि संग यदाकदा कविता सेहो प्रकाशित भेल जे काव्य-यात्राकेँ आगाँ बढ़यबामे सहायक सिद्ध भेल। हँ, एतबा सत्य अछि जे बाल दिवसक अवसरपर ११ नवम्बर १९७९ क अंक एहि प्रवृत्तिक काव्य-धाराकेँ प्रोत्साहित करबाक दिशामे सफल प्रयासक शुभारम्भ कयलक।
मैथिली बाल-काव्य-धाराक शुभारम्भ जे मिथिलांचलक शिशुक मानसिक आ भावनात्मक पोषण कयलक; ओकर मुक्त हँसी, उमंग आ मिठगर खिलखिलाहटि काव्यमे प्रवेश पौलक। बाल गोपालक कल्पना आ जिज्ञासाक क्षितिजक विस्तार शनैः-शनैः होमय लागल आ ओकरा सहृदय व्यक्ति आ उत्तमोत्तम नागरिक बनबाक दिशामे जबर्दस्त नेओ देलक।
मैथिलीमे उपलब्ध बाल काव्यधाराकेँ दुइ श्रेणीमे विभाजित कऽ कए ओकर शृंखलाबद्ध इतिहासक लेखा-जोखा कयल जा सकैछ-
१.मौलिक काव्ययात्रा
२.अनूदित काव्ययात्रा
मौलिक काव्य-धाराक इतिहासमे विगत शताब्दीक नवम दशकमे दस्तक देलनि उपेन्द्र झा “व्यास” (१९१७-२००२)। हुनकर “अक्षर परिचय” (सत्येन्द्रनाथ झा, श्रीभवन, बोरिंग रोड, पटना, १९८४) प्रकाशमे आयल जाहिमे शैशवावस्थाक आँखिकेँ खोलबाक ओ उपक्रम कयलनि। एहिमे “अ” सँ “ज्ञ” धरि प्रत्येक वर्णपर सरल-सुबोध बाल-काव्यक सृजन कऽ ओ एकर विकास यात्रामे नव आयामक सृष्टि कयलनि। एहिमे कवि स्वदेश प्रेम, उपदेश, चेतावनी, आत्मरक्षा, मातृभाषा प्रेम, पाप-पुण्य आ जीवनक विविध रूपकेँ उद्घाटित कयलनि यथा-
जलमे बहुतो जीव रहैछ
झट दऽ करब नीक नहि होइछ
टटका जलसँ खूब नहाउ
ठकक संगमे ने पड़ी बाउ
डमरू डिमडिम बजाबी आनि
ढढ़क-ढढ़क नहि पीबी पानि
(अक्षर परिचय, पृष्ठ-३)
मैथिली बाल-काव्ययात्राक परिप्रेक्ष्यमे एकैसम शताब्दी विशेष उपजाऊ भूमि कहल जा सकैछ। एहि कालावधिमे बाल काव्यधाराक अभूतपूर्व विकास भेलैक आ कतिपय कविताकार एहि दिशामे उन्मुख भेलाह जे एकरा सम्वर्द्धित करबाक दिशामे प्रयास करब प्रारम्भ कयलनि। वर्तमान शताब्दीक प्रथम दशकमे लीक तोड़ि कऽ स्वतः बाल-काव्यधाराक अन्तर्गत सशक्त हस्ताक्षर कयलनि जनकवि जीवकान्त (१९३६) जनिक चारि बाल काव्य संग्रह गाछ झूल झूल (चतुरंग प्रकाशन, बेगूसराय, २००४), छाह सोहाओन (शेखर प्रकाशन, पटना (२००६), खीखिरिक बीअरि (किसुन संकल्प लोक, सुपौल, २००७) एवं हमर अठन्नी खसलइ वनमे (जखन-तखन, दरभंगा, २००९) प्रकाशमे आयल अछि जाहिमे कुल मिलाकऽ डेढ़ सयक लगधक कविता संकलित अछि। उपर्युक्त संग्रहादिक कवितादि बाल-काव्यधाराक समुचित प्रतिनिधित्व करैत अछि जाहिमे कवि बालमनक भावनाकेँ देखबाक प्रयास कयलनि अछि। उपर्युक्त कवितादि हृदयकेँ स्पर्श कयनिहार थिक जे शनै:-शनैः बाल मनकेँ हृदयस्पर्शी भऽ आगाँ बढ़ि जाइछ तथा पाठक ओकरा ताधरि देखैत रहैछ जाधरि ओ मानव चक्षुसँ अदृश्य नहि भऽ जाइछ। कवि पहिने स्वयंकेँ डुबौलनि अछि आ बाल मनकेँ डूबबाक हेतु विवश करैत छथि।
हिनक बाल-काव्य यात्राकेँ चारि भागमे विभाजित कयल जा सकैछ,
१.वात्सल्य भावमय
२.वात्सल्यक समय
३.शिशु बोध
४.शिशु कल्पना।
हिनक बाल-काव्यक सर्वगम्यता आ सहज संवेद्यता सोझ अभिव्यक्तिक कारणेँ नहि, प्रत्युत जीवन प्रसंगक भूमिकामे कोनो एक भावक्षणकेँ उपस्थित करबाक कारणेँ ओहिमे ओ गुण उत्पन्न भेल अछि, जकरा हम सहज मानवीयता कहि सकैत छी। जीवनक विविध यथार्थ प्रसंगसँ सम्बन्धित संवेदनात्मक प्रतिक्रिया हिनक बाल-काव्यक मूलाधार हैबाक संगहि संग हुनक व्यक्तित्वक विशेषतादिपर हमर दृष्टि केन्द्रित भऽ जाइत अछि। स्थल-स्थलपर एहन अनुभव होइत अछि जेना ओ अपन भावकेँ वैक्यूममे राखि कऽ पुनः ओहिपर काव्य सृजन नहि कयलनि, प्रत्युत टटका सम्वेदनात्मक प्रतिक्रियाकेँ सहज रूपेँ पद्यबद्ध कयलनि। सम्भवतः एहने टटका सम्वेदनात्मक प्रतिक्रियादिकेँ सहज रूपसँ काव्यमे महत्व दऽ कए पद्य-बद्ध कऽ प्रक्रियामे ओ बाल-काव्य-यात्रा अन्तर्गत हस्ताक्षर कयलनि। हिनक बाल कवितादिमे खेलकूद, पढ़ाइ-लिखाइ, प्राकृतिक सुषमाक विविध स्वरूप, विविध जीवनोपयोगी सामग्री, बाध-वन, सर-सम्बन्धी, जीव-जन्तु, इतिहासोद्भव महापुरुषक जीवन वृत्तान्त आ आपसी लड़ाइ-झगड़ा सब हुनका सोझाँ होइत छनि आ अपन आनन्दी स्वभावक कारणेँ हुनका एहि सबमे रस-बोध भेलनि।
जीवकान्तक साहित्यिकता अपन सभ्यता-संस्कृति आ भाषाक संग अपनत्वक संगहि काव्यात्मक अनुभव तथा भाषाक रचनात्मक प्रयोग थिक। इएह कारण अछि जे हुनक अपन पृथक् रंग, पृथक् पहचान तँ छनिहे जे ओ परम्परागत व्यञ्जनाक संग नव बात कहबाक उपक्रम कयलनि। ओ अनुभव सत्यकेँ सार्थक एवं रचनात्मक आयाममे बाल-काव्य यात्रा कयलनि। ओ अपन सोचकेँ, काव्य-यात्राकेँ एक नव क्षितिजक अन्वेषण करैत, यथार्थसँ सरोकार रखैत, विसंगति आ विद्रूपताक बीच रस्ता बनबैत सार्थक जीवन मूल्यकेँ स्थापित करबाक अनवरत प्रयासमे लागल छथि। हिनक बाल-काव्य-यात्राक प्रक्रियाक केन्द्र थिक बाल-मन जाहिमे कवि परिश्रमक महत्ताकेँ प्रतिपादित करैत ओकर मनकेँ एहि दिस आकर्षित कयलनि अछि,
देअए जीवन उत्सव तत्व
जीवन थिक बड़का टा उत्सव
खटने सभ सुख पाबी
खटबे थिक देशक आजादी
खटिकए स्वर्ग बसाबी
(हमर अठन्नी खसलइ वनमे, पृष्ठ-३४)
जीवकान्तक बाल-काव्य-यात्राक अनुशीलन आ मननसँ स्पष्ट अछि जे लोकसाहित्यान्तर्गत शिशुसँ सम्बन्धित लोक प्रचलित कहबी अछि, ताहिसँ ओ पर्याप्त अनुप्राणित छथि यथा गाछ झूल-झूल मे पीपर, बिरिछ तर, झोंकी हवामे, जामु, बाघक मौसी इत्यादि उपर्युक्त परिवेशमे रचित अछि। बच्चा सब कहैत अछि:
मैनाक बच्चा सिलौरीया रे
दू गो जामुन गिरा दे
उपर्युक्त भावसँ अनुप्राणित भऽ ओ बाल-काव्य सृजन कयलनि:
जुमा-जुमा कए ढेपा मारहि
जामु गिरा दे, बबलू भैया
कारी-कारी जामु खसाबहि
गाछ झखा दे, बबलू भैया
(गाछ झूल-झूल, पृष्ठ-२८)
मैथिलीक विपुल लोकोक्तिक प्रभाव हिनक काव्य-यात्रामे दृष्टिगत होइछ यथा:
जाड़ बड़ जाड़, गोसाइँ बड़ पापी
तपते खिचड़ि खुआ दे गे काकी
(मैथिली लोकोक्ति कोश, पृष्ठ-३१०)
उपर्युक्त लोकोक्तिसँ अनुप्राणित भऽ ओ बाल काव्य-यात्राक श्रीगणेश कयलनि यथा:
टटका पानि झाँपि कए राखी
फटकि बना कए चाउर बेराबी
पीरा-पीरा दाल दरड़ि ली
अल्लू-कोबी काटि मिलाबी
चूल्हि पजारि धरी टोकनीमे सभ सामिग्री
मद्धिम धाह पानि टभकाबी
हरदि जोग दए पियर बना दे
अटकरसँ किछु नोन खसाबी
जीर-तेलकेँ धाह देखा कए, सोन्ह बनबिहेँ
छौंकि-सानि कए मझनी हमरा लेल परसि दे
खिच्चड़ि खा गरमयलहुँ, से हम नहिए कापी
तपते खिच्चड़िसँ, टनकओलनि ललकी काकी
(गाछ झूल-झूल, पृष्ठ-५५)
वस्तुतः शिशु काव्य-धारामे यथार्थतः वैह कवि प्रविष्ट कऽ सकैत छथि, जनिका भाषापर अद्भुत् अधिकार छनि आ वैह सफल भऽ सकैत छथि जे बाल सुलभ चंचलताक संगहि शब्दाडम्बर विहीन भाषाक प्रयोगमे सिद्धहस्त छथि। वस्तुतः कवितामे भाषा नहि, प्रत्युत शब्द होइत अछि। शब्द-अर्थ आ अन्तर्निहित ध्वन्यात्मक लयकेँ जीवकान्त सूक्ष्मताक संग चिन्हलनि आ ओकर सहज अभिव्यक्तिक सादगीमे बदलबाक क्षमता रखैत ओ बाल-काव्यकला रूपकेँ प्रभावित कयलनि।
जीवकान्तक बाल-काव्य-धारा समकालीन काव्य-धारासँ सर्वथा पृथक् अछि। दैनंदिन जीवनक छोटसँ छोट घटनादि आ जीवन स्थितिक हल्लुक निजी स्पर्श पाबि कऽ स्वयं कविताक शक्ल धारण कऽ लेलक अछि। हुनक दृष्टिकोण स्पष्ट अछि आ बिनु कोनो रूढ़िकेँ अपन गढ़ल मुहाबरासँ ओ अपन बात बाल-काव्यमे कहलनि अछि। हिनक बाल-काव्य पारिवारिक आ आत्मीय ऊष्माक काव्य थिक। हिनक काव्यमे जीवन्त व्यक्तिक बोली-चालीक छवि प्रस्तुत करैत अछि। हुनक एहि प्रवृत्तिक काव्य भाषा आ मुहाबराक एहन हिस्सा बनि गेल अछि जे समकालीन काव्य-भाषाक अनुपम उदाहरण अछि। स्वाभाविक रूपसँ हिनक बाल-कवितामे रोजमर्राक, हमर दिनचर्या आ घरौआ जीवनक वस्तुजात सदैव उपस्थित रहल अछि। जतय धरि उपमादि आ रूपकमे उपर्युक्त वस्तुक प्राथमिकता अछि जेना देहरी, जुत्ता-चप्पल, डोलमडोल, किकिआइ, झक्कड़, मुहदूबर, सुटकल, विलायल, छिच्चा, छिछरी, भरोस, नोछरा-नोछरी, सकचुन्नी, रोइयाँ, मछरी, फाँक, कटारी, पछारी, खत्ता, ठेलमठेला, उछाह, अगुताइ, रकटल, बेरबाद, लिबलिब, लसकल, फनकइ, पथार, गाछ-बिरीछ, अनघोल, फलिया, गाय, बकरी, बनैया, नेसइ, खोंटब, औंघी, सुटुकि, वेथा, घाम, घमौरी, भीड़-भरक्का, पतनुकान इत्यादिक उपस्थिति बालोचित सिद्ध करैत अछि।
हिनक बाल-काव्यमे एक रहस्यपूर्ण, नैसर्गिक गीतमयता अछि जे स्वयं बिम्ब, कथ्य, रूपक शब्द चयन आ कथनक भंगिमा अत्यन्त चमत्कारी रहितहुँ सरल आ हृदयस्पर्शी अछि। जीवनक छोट-छोट अनुभव, प्राकृतिक दृश्य हुनक कवितामे एक नव स्फुरणक संग मुखरित भेल अछि। एहि काव्यमे हिनक आत्मा, मनःस्थिति आ मानसिक व्यथा इत्यादिक वैयक्तिक कल्पना-प्रधानता उपलब्ध होइत अछि। हिनक बाल-काव्य-धारामे मिथिलांचलक आडम्बरहीन हरियर कचोर ग्रामीण परिवेशक अद्भुत् सामंजस्य अछि जतय ओ जीवन व्यतीत कऽ रहल छथि।
जीवकान्तक बाल कविताक वैशिष्ट्य थिक जे ओहिमे बच्चा सदृश टटका सम्वेदना, ओकर चंचलता तथा चिदानन्द भावक प्राचूर्य अछि। एहि दृष्टिएँ अनुशीलनोपरान्त ई स्वीकार करय पड़ैछ जे मैथिलीमे हिनक बाल-काव्य-धारा अनुपम धरोहर थिक।
वर्तमान दशकमे मैथिली बाल-काव्यधारामे बहुविधावादी प्रतिभासम्पन्न युवा कवि सशक्त हस्ताक्षर कयलनि ओ थिकाह गजेन्द्र ठाकुर (१९७१) जे प्रवासी रहितहुँ मातृभाषानुरागसँ उत्प्रेरित भऽ एहि क्षेत्रमे अपन उपस्थिति दर्ज करौलनि जनिक शताधिक बाल कवितादि “कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक” (२००९) मे संकलित अछि। एहिमे संग्रहित समस्त कवितादिक विषय-वैविध्यकेँ उद्घाटित करैत कवि बालमनक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, ओकर नानाविध औत्सुक्य, प्रसन्नता, टीस, वेदना, प्राकृतिक सुषमा, बालोचित चांचल्य, वर्षा, रौद-बसात, खेलकूद, बाल श्रमिकक वेदना, किंडर गार्टेन स्कूलक क्रिया-कलाप, अवकाश भेलापर प्रसन्नता, खूजल रहलापर अप्रसन्नता तथा स्कूल जयबामे हनछिन करब आदि-आदि भावक विश्लेषण कवि अत्यन्त सूक्ष्मताक संग विलक्षण ढंगे कयलनि अछि। शिशुकेँ पितामह आ मातामहक अधिक स्नेह भेटैछ, जाहि कारणेँ हुनका सभक लग रहबाक ओ बेसी आकांक्षी रहैछ, कारण ओ दुलार-मलार ओकरा समयाभावक कारणेँ पारिवारिक परिवेशमे अन्य सदस्यसँ नहि भेटि पबैछ। ओकर विविध जिज्ञासाक यथोचित उत्तर ओकरा ओतहि भेटैछ, जाहि कारणेँ ओ सतत हुनका सभक समीप रहब पसिन्न करैछ।
बालमन एतेक बेसी सेनसेटिभ होइछ जे सामाजिक परिवेशकेँ देखि ओकरा आत्मबोध भऽ जाइछ सम्पन्नताक आ विपन्नताक। तकर यथार्थ स्थितिक चित्रण निम्नांकित पंक्तिमे कवि कयलनि अछि यथा-
गत्र-गत्र अछि पाँजर सन
हड्डी निकलल बाहर भेल
भात धानक नहि भेटय तँ
गद्दरियोक किए नहि देल
औ बाबू गहूमक नहि पूछू
अछि ओकर दाम बेशी भेल
गेल ओ जमाना बड़का
बात गप्पक नहि खेलत खेल
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.१३७)
बालमनक प्रसन्नताक भाव कवि व्यक्त कयलनि अछि जखन ओकरा स्कूल जयबासँ छुट्टी भेटि जाइछ, तकर दिग्दर्शन तँ करू:
आइ छुट्टी
काल्हि छुट्टी
घूमब-फिरब जाएब गाम
नाना-नानी मामा-मामी
चिड़ै-चुनमुनी सभसँ मिलान
बरखा बुन्नी आएल
मेघ दहोदिस भागल
कारी मेघ उज्जर मेघ
घटा पसरल
चिड़ै-चुनमुनी आएल
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.८५)
हाथीकेँ जखन शिशु प्रथमे प्रथम देखैछ तँ ओ आश्चर्यित भऽ अकस्मात प्रफुल्लित भऽ जाइछ ओ सहसा बाजि उठैछ, हाथीक सूप सन कान” (कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.८४) आ “हाथीक मुँहमे लागल पाइप” (कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.७१)
।
बाल श्रमिकक व्यथा सेहो सोझाँ आएल अछि। जेना-
फेर आएल जाड़
कड़कराइत अछि हार
बिहारी!!
लागए-ये भेल भोर
गारिसँ फेर शुरू भेल प्रात
बिनु तैय्यारी
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.९०)
जतेक दूर धरि भाषा प्रयोगक प्रश्न अछि एहिमे युवा कवि अपन उदार प्रवृत्तिक परिचय देलनि। भूमण्डलीकरणक फलस्वरूप भिन्न-भिन्न भाषादिक बहुप्रचलित हल्लुक शब्दादि मैथिलीमे धुड़झाड़ प्रयोग भऽ रहल अछि तकरा शिशु कोना आत्मसात कऽ अन्तर्राष्ट्रीय भाषा सीखि जाइछ, तकर कतिपय उदाहरण एहि कवितादिमे यत्र-तत्र उपलब्ध होइत अछि। शिशु अपन तोतराइत बोलीमे एहन-एहन शब्दकेँ अनुकरण करबाक प्रयास करैछ जकर फलस्वरूप ओकर भाषा ज्ञानक विस्तार अनायासे भऽ जाइछ तकर कतिपय उदाहरण एहिमे भेटि जाइछ, यथा:
ट्रेन गाड़ी धारक कातमे
आएल स्टेशन छुटल बातमे
ट्रेन चलल दौगल भरि राति
सुतल गाछ बृच्छ भेल परात
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.६३)
अत्याधुनिक परिवेशमे शिशुकेँ अत्यधिक लगाव खेल-कूदमे भऽ गेलैक अछि जे ओ अपन पुश्तैनी खेल सर्वथा बिसरि गेल अछि आ पाश्चात्य खेलक प्रति आकर्षित भऽ गेल अछि। कवि बालकक एहि चंचलताक विश्लेषण एहि प्रकारेँ कयलनि अछि:
हम बाबा करू की पहिने
बॉलिंग आकि बैटिंग
बॉलिंग कय हम जायब थाकि
बैटिंग करि हम खायब मारि?
पहिले दिन तूँ भाँसि गेलह
से सूनह ई बात बौआ
बैटिंग बॉलिंग छोड़ि छाड़ि
पहिने करह गऽ फील्डिंग हथौआ
(कुरुक्षेत्रम् अन्तर्मनक, पृ. ७.१२१)
हिनक काव्य भाषा अत्यन्त विस्तृत आ व्यापक अछि जकर प्रयोग ओ कयलनि अछि। महानगरीय परिवेशमे रहितहुँ मैथिलीक ठेंठसँ ठेंठ शब्दादिक प्रयोग ओ अत्यन्त निपुणताक संग कयलनि अछि यथा गाछ-पात, भोरे-सकाल, झहराउ, हियाउ, फुसिये, लुक्खी, खिखीर, पीचल, सुन्न, ढहनाइत, झलफल, सूप, इयार, चाली, छागर, बुरबक, खगता, जलखै, बोन, घटक, गरिपढ़ुआ, थलथल, औंटब, मसौसि, पुरखा, अधखिजू, कोपर, सटका, खौंझाइ, लजकोटर, मुहचुरु, कथूक, दीयाबाती, घटकैती, झड़कलि, धमगिज्जर, चोरुक्का आदि-आदि।
युवा कविक गतिशीलताकेँ देखि लगैछ जे भविष्यमे हिनक कवित्व शक्ति आर अधिक विकसित होयतनि, कारण ओ एखन पुष्पक कली सदृश मैथिली बाल-काव्यक संगहि संग वयस्कोक हेतु पर्याप्त मात्रामे काव्य सृजन कयलनि अछि जे आलोकमय थिक।
अनूदित बाल-काव्य-धारा
मैथिलीमे बाल काव्य-धाराक द्वितीय पड़ावक नव अध्यायक सूत्रपात भेल अनूदित काव्य-धारासँ। सहज आ सम्प्रेषणीय अनुवाद मूल लेखनसँ कठिन काज थिक आ ताहूमे कविताक अनुवाद तँ औरो कठिन थिक। पूर्वांचलीय आर्य भाषामे बाङला आ मैथिली एकहि परिवारक भाषा हैबाक कारणेँ एकर समग्र विशेषतादिक संगहि अपन निजी वैशिष्ट्य रखैत अछि। यद्यपि दुनूक संस्कृतिमे समानता रहितहुँ किछु सांस्कृतिक वैषम्य अछि जाहि कारणेँ शब्दाडम्बरक भिन्नता अछि।
बाल-काव्य यात्रान्तर्गत एक नव जागरणक उद्भावना भेल जे समीपवर्ती बाङला भाषा आ साहित्यक विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर (१८६१-१९४१) क अर्द्धशतक काव्य एवं गीत “रवीन्द्रनाथक बाल साहित्य” (साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, १९९७) प्रकाशमे आयल जकर अनुवादक छथि उदयनारायण सिंह “नचिकेता” (१९५१)। विश्व सृष्टिक नवकर्म सहयोगी एहन कवि बाङला साहित्यक हजार वर्षक इतिहासमे आविर्भूत भेलाह जे एक प्रान्तीय भाषामे बाल-काव्य-धारा प्रवाहित कयलनि जे समस्त भारतीय बाल-काव्य-धारामे सर्वकालिक बालोचित आनन्द, चिन्ता आ जिज्ञासा मे सम्पूर्ण भारतीय भाषा-भाषीक वाणीमे समाहित भऽ गेलाह। मैथिलीमे अनूदित हिनक बाल कविता एहि विषयक साक्षी थिक जे ओ समग्र भारतीय भाषाक कविक रूपमे प्रतिष्ठित भऽ गेलाह जे समस्त देशक सब कालक संग आनन्द-चिन्ताक भाव हुनक बाल-काव्य-धाराक प्रमुख बिन्दु थिक। रवीन्द्रनाथ जीवनक सभ स्तरक कवि, ऋगवेदक भाषामे ओ “कविनामं कवितमः” रूपेँ प्रख्यात भऽ गेलाह।
रवीन्द्रकेँ शिशुक प्रति अगाध प्रेम छलनि। ओ शिशुक संग प्रेमे नहि करैत रहथि, प्रत्युत ओकरापर अगाध विश्वास सेहो करैत, समानरूपेँ आदर करैत रहथि, तकर कारण छल जे ओ शैशवावस्थामे मातृप्रेमसँ विमुख रहलाह। इएह कारण थिक जे ओ शिशु-काव्य-धाराक अन्तर्गत एहि भावनाकेँ व्यक्त करबामे कनियो कुंठित नहि भेलाह। हुनक मान्यता छलनि जे शिशु नादान, अबोध, मूर्ख नहि, प्रत्युत बुझनुक होइत अछि। हुनका एहि विषयक विश्वास छलनि जे गम्भीरसँ गम्भीर विषयकेँ सरल बना कऽ बुझाओल जाय तँ कठिनसँ कठिन विषयकेँ ओ सुगमतापूर्वक आत्मसात कऽ सकैछ। शिशुक संग शिशु बनि कऽ ओकरा सभक संग खेलायल जाय वा वार्तालाप कयल जाय तँ ओकरा सभक वास्तविक गुणक विकास सहजतापूर्वक भऽ सकैछ।
मूल बाङला बाल-काव्य एवं गीत संग्रहसँ मैथिलीमे “चैताली” (१८९६), “कणिका” (१८९९), “कथा ओ कहिनी” (१९००), “नैवेद्य” (१९०१), “शिशु” (१९०३), “उत्सर्ग” (१९१४), “शिशु भोलानाथ” (१९२२), “चित्र-विचित्र” (१९३३), “खाप छाड़ा” (१९३७), “गीत वितान” (१९४१-४२) एवं “सहजपाठ भाग एक एवं दू” सँ बीछल बेरायल अनूदित रूप प्रकाशमे आयल अछि। वर्षासँ सम्बन्धित रवीन्द्र प्रथमे प्रथम शिशु काव्यक सृजन कयलनि यथा:
विस्टि पड़े टापर टुपुर नदे एलो वान।
शिव ठाकुरेर विये हवे तिन कन्यादान॥
उपर्युक्त काव्यांशक अनुवाद मैथिलीमे नहि भेल अछि। मैथिलीमे वर्षासँ सम्बन्धित “मेघ बरखा टिपिर टिपिर टप” अनूदित भेल अछि तकर मूल रूप निम्नस्थ अछि:
दिनेर आलो निमे एलो सुज्जि डोवे डोवे।
आकाश जुड़े मेघ जुटे छे चाँदेर लोभे लोभे।
मेघेरे उपर मेघ कोरेछे रङ्गोर उपर अङ्ग।
मन्दिरे ते काँसार घण्टा बाजलो ढङ्ग ढङ्ग।
उपयुक्त काव्यांशक अनूदित रूप निम्नस्थ अछि:
बुझल इजोत दिवस केर सूरज
एखनहि डूबल हाय
मेघ जुटल अछि चानक लोभें
व्योम लोक धरि जाय
मेघक ऊपर मेघ धरल अछि
रंगक ऊपर रंग
मंदिर मध्यक काँसा घण्टा
मंद्रित शब्द-तरंग।
उपर्युक्त काव्यांशक अन्तिम पंक्तिक अनुवाद अनुवादक सही नहि कऽ पौलनि। “मंद्रित शब्द-तरंग”क बदलामे “काँसा घण्टा- बाजल ढन-ढन” उपयुक्त होइत।
रवीन्द्रक बहुचर्चित आ बहु प्रशंसित काव्य थिक “पुरातन भृत्य” जकर प्रारम्भिक मूल बाङला रूप निम्नस्थ अछि:
भूतेर मतन चेहरा जे मन, निर्बोध अति घोर।
जे किछु हाराय गिन्नी बलेन, केष्टा बेरा चोर।
उठिते बसिते करिपान्तो शुनओ ना शुने काने।
कत पाय बेंत ना पाय वेतन, तबुना चेतन माने।
उपर्युक्त काव्यांशक मैथिलीमे अनूदित रूप निम्नस्थ अछि:
भूत जकाँ चेहरा ओकर, निर्बोध अतिघोर।
जे किछु हेराय कोसथि घरनी “किसुने निश्चये चोर”।
उठइत सुतइत गारिक बरखा, नहि दइ छइ ओ काने।
खाइ छइ बेंत ने पाबै वेतन, तहुँ नइ चेतन मानै।
अनूदित अंशक किछु शब्द एहन अछि जाहिपर सहसा आपत्ति होइत अछि। जेना “निश्चये”क स्थानपर “बेरहि”, “सुतइत”क स्थानपर “बैसइत”, बरखाक स्थानपर “दैत छी”, “नहि दइ छइ ओ काने”क स्थानपर “तइयो ने सुने”, “खाइ छी”क स्थानपर “मारै छी”, “ने पबे वेतन”क स्थानपर “ने दै छी वेतन” तथा “तहु नइ चेतन” क स्थानपर “तइयो नइ चेते” उपयुक्त होइत।
रवीन्द्रक शिशुसँ सम्बन्धित काव्य-यात्रामे मानवताक सम्भवतः सबसँ आदिम आ असंदिग्ध रूप मौलिक भाव वात्सल्यक अज्ञात गाम्भीर्यकेँ उद्घाटित करैत अछि। धियापूताक दुग्रह्यि चारुतत्व, ओकर अनुमेय व्यवहार ओ प्रसन्नतादायक चंचलता, ओकर तर्कातीत कल्पना आ ओकर अमूर्त्त कारुणिकता एहि सबमे कविकेँ विश्वक सर्जनात्मक जीवनक स्पन्दनक अनुभव भेल छनि। वैष्णव पद सबमे बालकक प्रति स्नेह आ श्लाघाकेँ काव्यात्मक स्वीकृति भेटल छलैक। परन्तु ओहि ठामक बालक सामान्य बालक नहि भऽ ईश्वरक अवतार अछि मानव शिशुक ऊपरमे। टैगोरक काव्यमे कोनो प्रकारक देवत्वारोपण नहि छैक, प्रत्युत शाश्वत रूपेँ निर्गत जीवनक चेतनाक रूपमे मानव शिशुक साधारणीकरण अछि। शिशु सम्बन्धी कतोक कवितादि नेना-भुटकाक हेतु उपयुक्त अछि। वस्तुतः ओहिमे किछु रचना हुनक मातृहीन पुत्र-पुत्रीक हेतु रचल गेल छल।
हिनक शिशु काव्यक वैशिष्ट्य थिक जे ओहिमे फराक-फराक भाव स्थितिक चित्रण भेल अछि जे कविक अन्तरक बाल मनकेँ उद्घाटित करैत अछि। कवि विश्वकेँ एहन उदास बालकक आँखिए लालसापूर्वक देखैत छथि जकरा ओकर इच्छाक अनुरूप घुमबा-फिरबाक अनुमति नहि हो। बाल गीत शैलीमे ओ छोट-छोट कवितादि सेहो लिखलनि जकर विशेषता थिक जे ओ वयस्को द्वारा समान रूपेँ आस्वाद्य अछि। बाल काव्यान्तर्गत ओ विस्तारपूर्वक नाटकीय शैलीमे खिस्सा कहलनि, जकर कथ्य सामान्यतः ग्राह्य अछि। रवीन्द्र बौद्ध साहित्यमे संगृहीत दन्त कथाक माहात्म्य आ नाटकीय मूल्यक प्रति ध्यानाकर्षित कयलनि। एकरा माध्यमे कवि भारतक शानदार चित्रक कल्पना कयलनि जे अज्ञात आ अकर्मण्यताक व्यामोहसँ जागि रहल अछि। ओ शिशु काव्यमे काव्यात्मक कल्पनाक रुझानक संगहि शिशुक विविध प्रसंगकेँ उद्घाटित कयलनि अछि।
“गीत वितान”सँ जतेक गीत एवं काव्यक अनूदित रूप पाठकक समक्ष अछि से ओ मुख्यतः गीताञ्जलि (१९१०), गीतमाल्य (१९१४) एवं गीतालि सँ लेल गेल अछि। एकर वैशिष्ट्य अछि जे ओ जतबे मात्रामे कविता अछि ओ ततबे मात्रामे गीत सेहो। वस्तुतः हिनक काव्यमे प्रायः प्रगीत आ गीतक बीचमे कोनो विभाजन रेखा नहि खीचल जा सकैछ। अपन अद्भुत सांगीतिक प्रतिभासँ ओ अपन किछु विस्तृत आ कठिन कवितादिकेँ सफलतापूर्वक संगीतमे बान्हि देने रहथि। एहिमे हुनक भावनात्मक लालसा मुखर आ स्थायी अछि, छन्द अधिक सहज अछि आ बिम्ब विधान उत्कृष्ट।
बाङला भाषा भाषी शिशुकेँ शिक्षित करबाक भावनासँ उत्प्रेरित भऽ ईश्वरचन्द्र विद्यासागर (१८२०-१८९१) बाल पाठक शृंखला प्रारम्भ कयने रहथि तकरा अग्रसर करबाक उद्देश्यसँ रवीन्द्र शिशुक मानसिकताक संगहि आकर्षक ढंगसँ दुइ खण्डमे सहजपाठक रचना कयलनि। एहिमे सहज सुबोध वर्णमालाक परिचय अछि जे बच्चा सभक लेल पाठ अछि जे संयुक्ताक्षर विहीन आ संयुक्ताक्षर सहित अछि।
रवीन्द्रक उपलब्ध काव्य-धाराक प्रभाव परवर्ती काव्यधारापर अवश्य पड़ल जकर फलस्वरूप अन्यान्य भाषाक शिशु कविता मैथिलीमे अनूदित भेल। किन्तु एहि तथ्यकेँ स्वीकार करबामे कोनो तारतम्य नहि होइछ जे रवीन्द्र जाहि भावधारा, भाषा आ छन्द विन्यास कयलनि ओहि सबपर सम्यक रूपेँ विचार कयलासँ प्रतिभाषित होइछ जे अनुवादक यथार्थतः ओकर मर्मकेँ स्पर्श नहि कऽ पौलनि। अतएव समग्ररूपेँ अनुशीलनोपरान्त कतिपय एहन स्थल अछि जतय अनुवादककेँ मैथिलीक उपयुक्त शब्दावली नहि उपलब्ध भऽ पौलनि ततय ओ एहन-एहन शब्दादिक प्रयोग कयलनि जे ने तँ मैथिलीक थिक आ ने तँ बाङलाक। रवीन्द्र बाल-काव्य एहि विषयक साक्षी थिक जे देशकेँ सबल राष्ट्र बनयबाक उद्देश्यसँ शान्तिनिकेतनक स्थापना कयलनि।
मैथिली बाल-काव्य-धाराक मौलिक एवं अनूदित स्वरूपपर विचार कयलापर ई कहल जा सकैछ जे ई एखन शैशवावस्थामे अछि। एहि विधाकेँ एक सुनिश्चित स्वरूप प्रदान करबाक निमित्त वर्तमान सन्दर्भमे प्रयोजनीय अछि जे कविताकार लोकनिकेँ एहि विधाकेँ शैशवावस्थासँ प्रौढ़ावस्थामे अनबाक दिशामे सबल आ सुदृढ़ बनयबाक दिशामे सयत्न प्रयास करबाक प्रयोजन अछि जे ई साहित्यक अन्यान्य विधादिक समकक्ष आबि टक्कर लऽ सकत। एतबा सत्य अछि जे बाल-काव्य शिक्षाप्रद आ साहित्यक प्रति ममत्व जागृत करबाक दिशामे अहं भूमिकाक निर्माण कऽ सकैछ से हमर विश्वास अछि।
२
गजेन्द्र ठाकुर
मैथिलीक सन्दर्भमे बाल साहित्य-
बाल साहित्य लेखकसँ अनुरोध जे ङ आ ञ क प्रयोग करथि जाहिसँ बच्चाकेँ सुविधा होएत। नञि आ नै दुनू बाल साहित्यमे लिखल जा सकैए। भाङ लिखल जएबाक चाही, भांग नै। फेर छनि केँ बच्चा छनी पढ़ैए, वर्कशापमे एहन देखल गेल से छन्हि, कहलन्हि आदि प्रयोग करू। ई तीन टा मात्र उदाहरण अछि जे मैथिली बाल साहित्यक लेखनमे संयुक्ताक्षर, ञ, आ ङ क प्रयोग भाषाक विशिष्टता काएम रखबामे सहायक होएत।
तहिना सरल शब्द मुदा खाँटी मैथिली शब्द जेना अकादारुण आदिक प्रयोग करू।
बाल साहित्यमे गद्य आ पद्य दुनू महत्वपूर्ण अछि जँ कही तँ पद्य कने बेशिये। गद्यमे कथामे आन विषयक समावेश जेना विज्ञान, समाज विज्ञान आदि देलासँ मनोरंजन आ शिक्षाक मध्य तालमेल भऽ सकत।
३
विनीत उत्पल
कतय गेल फिल्मक बाल कलाकार
कहियो समय रहै जे बाल कलाकार आओर बाल गीत हिन्दी सिनेमा देखै बला लोकक मनमे उतरि जाइत छल। मुदा आजुक समयमे नहि तँ एहन बाल कलाकार अछि आओर नहि ओहन डायरेक्टर अछि जे बच्चाकेँ लऽ कऽ फिल्म बनौलथि जे दिल कऽ छू लय। 1954 मे एकटा फिल्म रिलीज भेल छल 'जागृति"। कहल जाइत अछि जे ई फिल्म पहिल फिल्म छल जहि मे बच्चाकेँ लऽ कऽ नीक गीत छल। गीत कवि प्रदीप लिखलैन । 'आओ बच्चो, तुम्हें दिखाएं, झांकी हिन्दुस्तान की" एखनो लोक सभ गाबैत अछि। अहि फिल्मक एकटा गीत आओर अछि जे मोहम्मद रफीक गायल छल 'हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के...।"
समय बदलैत गेल, कएक टा गीत लिखल गेल। 'बूट पालिस" मे 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुटठी मे क्या है", 'श्री 420" मे 'इचक दाना बिचक दाना",'धूल का फूल" मे 'तू हिन्दु बनेगा न मुसलमान बनेगा", 'गंगा जमुना" मे 'इंसाफ की डगर पे बच्चो दिखाओ चल के", 'सन ऑफ इंडिया" मे 'नन्हा मुन्ना राही हूं', 'ब्रह्मचारी" मे 'चक्के पे चक्का", 'दो कलियां" मे 'बच्चे मन के सच्चे" सभटा गीत बच्चा सभकेँ खूब नीक लागल। आओर तँ आओर, फिल्म अराधनाक गीत 'चंदा है तू मेरा सूरज है तू' आइ धरि लोक अप्पन सोना बेटाकेँ सुताबैक कालमे गाबैत अछि, जखन खेलाबै लागत तखन आशीर्वाद फिल्मक गीत "रेलगाड़ी, रेलगाड़ी...' गाबैत छल जकरा अशोक कुमार गयने छल। जखन घरमे मामा आबै छथिन या राति मे आंगन मे सुतल लोरी जना लोग सुनाबैत अछि 'चंदा मामा दूर के.." गीत सुनहि मे खूब नीक लागैत अछि। ओहिनो फिल्म अपना देशक गीत 'रोना कभी नहीं रोना", कालीचरणक गीत 'एक बटा दो", मिस्टर नटवरलालक गीत 'आओ बच्चों मैं तुम्हें कहानी सुनाता हूं", अंधाकानूनक गीत 'रोते-रोते हंसना सीखो" खूब सुनल आओर गाओल जाइत अछि। मासूम फिल्मक गीत 'छोटा बच्चा जानकर" कोनो काल मे सभक मुंह मे रहैत छल।
हिन्दी फिल्मी दुनिया मे एहनो काल छल जहिया बेबी तबस्सुम, बेबी गायत्री, मास्टर रतन, हनी इरानी, पल्लवी जोशी, नीतू सिंह, मास्टर मयूर केँ देखहि लेल लोक सिनेमा हॉल जाइत छल। मुदा अहि गपसँ इनकार नहि कएल जा सकैत अछि जे आब फिल्म मे अलग तरहक स्वादक लेल बाल कलाकारक अभिनय देखल जाइत अछि। कहियो दू टा प्रेमीक मिलाबैक लेल बाल कलाकारकेँ फिल्म मे लेल जाइत छल जे आबक फिल्म मे नहि अछि। किएकि मोबाइल, इंटरनेटक दुनिया आबि गेलासं नहि कबूतर, तोता अछि आओर नहि कोनो बच्चा, जकरा सं प्रेमपत्र भेजबा मे मजा आबैत छल।
एकटा फिल्म आयल छल 'ब्लैक"। ओ संजय लीला भंसाली बनौने छल। आयशा कपूर एहिमे अभिनय केने छल जाहि सं खूब फिल्म देखल गेल आ सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनि गेल छल। अमोल गुप्तेक तारीफ कएल जा सकैत अछि, किएकि आमिर खानक संग डिसलेक्सियासँ पीड़ित बच्चा पर 'तारे जमीं पर" बनौलनि। खूब नीक अभिनय करैक लेल दर्शील सफारी केँ घर-घर मे लोक चिन्है लागल। अहि मे अमिताभ बच्चन कोना ककरो से पाछाँ रहितथि। भूतनाथ मे अभिनय कऽ लोकक दिल जीत लेलखिन। अमन सिद्दकी एकरामे बंकूक भूमिका केलनि।
(साभार विदेह www.videha.co.in )
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