Saturday, August 20, 2011

श्री गंगेश गुंजन/ मैथिलीक उर्वर क्षेत्रमे कॉरपोरेट-जगत धाप/ ॥ किछु एहनो बात विषय॥

श्री गंगेश गुंजन(1942- )। जन्म स्थान- पिलखबाड़, मधुबनी। एम.ए. (हिन्दी), रेडियो नाटक पर पी.एच.डी.। कवि, कथाकार, नाटककार आ' उपन्यासकार। मैथिलीक प्रथम चौबटिया नाटक बुधिबधियाक लेखक। उचितवक्ता (कथा संग्रह) क लेल साहित्य अकादमी पुरस्कार। एकर अतिरिक्त्त हम एकटा मिथ्या परिचय, लोक सुनू (कविता संग्रह), अन्हार- इजोत (कथा संग्रह), पहिल लोक (उपन्यास), आइ भोट (नाटक)प्रकाशित। हिन्दीमे मिथिलांचल की लोक कथाएँ, मणिपद्मक नैका- बनिजाराक मैथिलीसँ हिन्दी अनुवाद आ' शब्द तैयार है (कविता संग्रह)।

मैथिलीक उर्वर क्षेत्रमे कॉरपोरेट-जगत धाप
एम्हर आब मैथिलीकेँ ई अष्टम सूचीक मान्यता एकटा आओर नव वादक उपहार-दरभंगा-मधुबनी-सहरसा वादक उपहार बनि रहलए। नव बाजारी प्रवृत्तिक ई प्रच्छन्न बीज-वपन आरम्भ भ’ चुकल अछि। सावधान। जे वर्ग एहि नव प्रयोजन-सिद्धिक बाट पर चलि आ’ चला रहलाह अछि, तनिकासँ संवाद होयबाक चाही। एखनहि-एही काल। अन्यथा मैथिलीक जतेक आ’ जेहन हानि आइ धरि नहि भेल छलैक, ताहिसँ बहुत बेशी आ’ खतरनाक नोकसान भ’ जयतैक। देशमे प्रचलित तुच्छतावादी प्रवृत्तिक विरुद्ध रखबारी कर’ पड़त। पूरवाग्रह मुक्त्त मन-प्राणसँ। अपना-अप्नी क’ क’ सुतारबाक, हथिययबाक अवसरवादी प्रवृत्तिसँ बाज अबै जाथि।
मैथिलीक विषयकेँ समग्रतामे -देखि-बूझि क’- जाहिमे सम्पूर्ण मिथिला, मैथिल आ’ मैथिली अछि। छुछे दरभंगा-सहरसा-मधुबनी –ए टा नहि। आ’ ने छुच्छे सोति-ब्राह्मण-ब्राह्म्णेतर मैथिली भाषा-संस्कृति। तहिना साहित्य कथा कि कविता कि उपन्यास कि नाटके टा नहि। ई सभटा समस्त मिथिलांचलक एक जातीय सांस्कृतिक समग्रता तथा लोक गरिमाक, मानवीय गुणवत्ता, जीवनमूल्यक दबाबमे करैत रचनाकर-विचारकक संघर्ष आ’ आदर्शोन्मुख अभिव्यक्त्तिमे समस्त युग-यथार्थ बनैत अछि।
ओना अपना-अपना पीढ़ीक प्रति आग्रह-आवेश स्वाभाविक, तेँ सभ दिना यथार्थ। मुदा वैह यदि कट्टरताक रूप ल’ लिअय तँ सामाजिक जहर बनि जाइछ। दुःखद आ’ चिन्तक विषय तँ ई जे एहन प्रवृत्ति मैथिली भाषा आ’ साहित्यमे सृजनरत अधिकांश नव्यतम रचनाकारमे पर्यंत देखाइ पड़’ लागलए। जनिकर लेखनसँ मैथिलीकेँ बड़-बड़ आशा छैक। से लोक सेहो।ई दुश्चिन्तेक विषय। एहन विभाजनकारी, विद्वेषोन्मुखी डेगकेँ रोकबाक चेतना जगाउ। आरम्भेमे-एखने।
एहन वेगमे संस्थामूल्य सभक क्षय होयबामे समकालीन लोकक नकारात्मक पहल केर मुख्य भूमिका रहैत आयल छैक। आइ तँ आर। संस्था समेत साहित्यक आकलन-मूल्यांकनसँ ल’ साहित्य-सम्मान धरिक मानदण्ड-निकष-कसौटीक निष्पक्षता आ’ ईमानदारी पर प्रश्न उठि रहल अछि। संस्था मूल्य सभक क्षरण आ’ कठघरामे ठाढ़ कएल जयबाक घटना सभकेँ, हल्लुक क’ नहि, बहुत गंभीरता आ’ जिम्मेदारीसँ स्वीकार करबाक एखनहि अछि- बेर छैक। नहि तँ पछताय लेल तँ सौँसे भविष्य धएल अछि। एहि परिस्थिति तथा एकर खतरनाक प्रवृत्ति पर लोकक ध्यान जयबाक चाही, जे कोना एन.आर.आइ. प्रकारक लोक सभ आइ एक-बएक अचानक मैथिलीक भाषा-सांस्कृतिक आँगनकेँ सेहो कब्जा क’ रहल छथि। तेहन देशी एन.आर.आइ प्रकारक लोककेँ अवश्य चिन्हित कयल जयबाक चाही जे मिथिलांचल-मैथिली भाषा आ’ लोकक प्रसँग कहियो किछु नहि कयलनि। कोनो योगदान नहि। परन्तु आइ मैथिलीक ओहू क्षेत्रक अवसर आ’ संस्थाकेँ अपने अधीन क’ लेबाक प्रबंधमे सक्रिय, लगातार सफल भ’ रहल छथि। विडंबना तँ ई जे मैथिली-मिथिलांचलक विरुद्ध एहि गतिविधिमे बहुत रास तथाकथित मैथिलीक उच्चकोटिक लेखक-समालोचक-कवि ( छद्म प्रातिशील रचनाकार समेत) सेहो कोनो आपत्ति वा विरोध दर्ज नहि क’ रहल छथि। बल्कि मैथिलीक एहि नवोदयक-साम्राज्यवादक परोक्ष सहयोगे क’ रहल छथि। सँभव जे भविष्यमे अपना लेल कोनो उत्पादक अवसरक वास्ते निवेश बुद्धिसँ, ई सभ क’ रहल होथि, एकरे व्यावहारिक बाट मानि क’ चुप बनल छथि। युवा पीढ़ीक सेहो। के पड़य एहि सभमे?
अद्यावधि प्राप्त इतिहासक जानकारीमे तत्काल यश-धनक अति-उताहुल , व्यग्र नव पीढ़ी! ई पराभव बजार आ’ भूमंडलीकरण (प्रायः!) मिथिलांचलक एहि नव गणित आ’ समाजशास्त्रकेँ की चीन्हओ? जा रहल लोक चीन्हओ कि आबि रहल लोक? ककर दायित्व।
हमरा जनैत अवसर आ’ दूरगामी प्रभाव परिणतिकेँ दृष्टिमे राखि क’, छुच्छे बौद्धिकताक, बुद्धिजीविताक संकीर्णताक नहि, सबजन मैथिल अर्थात् जनसाधारणक मंगलकेँ नजरि पर राखि, स्वच्छ हृदय, पारदर्शी व्य्वहारवादक चलन अनै जाउ। यदि सत्ये मैथिली, मिथिलासँ अनुराग हो। पारम्परिक मैथिल कूटिचालि चोड़ै जाइ जाउ। अंततः मैथिली अपना सभक एकहि टा नाओ अछि। सभ गोटय एही नाओमे सवार छी। पार उतरब तँ सभ क्यो। तेँ नाओमे भूर नहि हो। बीचहिमे डूबय ने कतहु। अन्हारोमे अनका टाटक भूर देखबाक आँखि आ’ नेत बदल’ पड़तैक।(अन्हारोमे अनका टाटक भूर देखबाक बिम्ब पूर्णियाक कवि- प्रशान्तजीक मन पड़ि गेलय ‘सद्य मैथिल छी’) जे ओ’ आकश्ववाणी पटनाक मैथिली कार्यक्रम भारतीमे प्रसारित कयने रहथि)।
नकारात्मक-ध्वंसात्मक समझ आ’ बुद्धिसँ परहेज करए जाइ जे क्यो से क’ रह्ल होइ। चन्द्रमा पर नव प्रभुवर्गक प्लॉट-रजिस्ट्री जेकाँ सद्याः उपलब्ध मैथिलीक एहन ऐतिहासिक अवसरक उपयोग सोचै जाउ-उपभोग नहि। दरभंगा बनाम सहरसा बना क’ मैथिलीक क्षेत्रीय रजिस्ट्री जुनि करबै जाउ। मनै छी, कहियो छल हेतै ई मनवाद। मुदा से मैथिलीक नितांत दोसर दौर छलैक। से ध्यान रखबाक थिक।
ई(वि)काल प्रायः सभ भाषा-साहित्यक इतिहासमे अबैत रहलैए। साहित्यिक सरोकार समाजसँ रहैत छैक, तथा समाज जीवन-यापन समेत जीवन-शैली आ’ जीवन मूल्यक निर्मिति आ’ निर्वहन तत्कालीन सत्ताक उपज होइत अछि। तेँ जन साधारणे लोकटा नहि, बुद्धिजीवी आ’ नेतृवर्ग सेहो ताही दबाबमे अपन प्राथमिकता तय क’ क’ अपन बाट बनबैत अछि आ’ सुभीता चह’ लगैत अछि। कालांतरमे जल्दीये तकर अभ्यस्त भ’ जाइत अछि। मध्यम वर्ग बेशी आ’ जल्दी।
ई सुविधावादी जीवन-शैली आ’ जीवनदर्शन जन्मैत छैक- कहियो धर्म-सत्ता, कहियो राज-सत्ता, कहियो विकलांग लोकतंत्र वा कहियो अपरिपक्व लोक सत्ताक विचार-व्यवहारक संवेदनशील व्यवस्था शासनक अधीनतामे। बहुसंख्यक जनताक अशिक्षा दुआरे। तखन ओहि समयक जे बुधियार वर्ग रहैत अछि से सत्ताक अनुगमन करबाक सुभीतगर निष्कंटक बाट चुनैये। सुभीताकेँ अपन जीवन-मूल्य बना लैत अछि। जे बुधियार नहि अर्थात् जनसाधारण लोक, ताहि परिस्थितिकेँ अपन नियति वा प्रारब्ध मानि लैत अछि। एना अगिला कएक पीढ़ी धरि एहिना ओंघड़ाइत चलैत चलि जाइत छैक।
गुलामी खाली कोनो बाहरीये देश वा सम्राट-साम्राज्येक टा नहि होइत अछि। गतानुगतिकता आ’ यथास्थितिवादी मानसिकता आ’ युगक प्रगति-गतिकेँ नहि बूझि, मूड़ी निहुँरैने सभ किछु स्वीकार आ’ सहैत चलि जाइक प्रवृत्ति सेहो गुलामियेक थिक। सत्ता तुष्ट लोकक ताबेदारी सेहो नव भाँग-गाँजाक अभ्यास अर्थात् गुलामिये होइत अछि। से ई सभ प्रकारक गुलामी बहुत युग धरि चलैत रहि जाइत छैक- अगिला कोनो सामाजिक परिवर्त्तन- कोनो महाक्रांति अयबा धरि। एखन धरिक इतिहासक शिक्षा तँ यैह कहैत अछि।
उर्वर क्षेत्रक आविष्कारक बाद बजार ओकरा हथियबैत छैक। तेहन लोक से क’ नहि गुजरय। निजी सम्पत्ति ने बना लिअय। एकर रजिस्ट्री-केबाला ने करबा ने करबा लिअय। मैथिलीकेँ मसोमातक जमीन जेकाँ अपना-अपना नामे लिखबाक व्योंतमे लागल तेहन लोक से क’ नहि लिअय।
एहि प्रक्रियामे माफियो –घुसपैठियो सभक गतिविधि अचानक तेज भ’ जाइत छैक। कहबाक प्र्योजन नहि जे मैथिली एखन सैह उर्वर क्षेत्र बनल अछि। मैथिली माफियाक कॉरपोरेट सेक्टर जोशमे अछि। गतिविधि तेज केने अछि।
मैथिलीक विषयकेँ समग्रतामे -देखि-बूझि क’- जाहिमे सम्पूर्ण मिथिला, मैथिल आ’ मैथिली अछि। छुच्छे दरभंगा-सहरसा-मधुबनी-ए टा नहि। आ’ ने छुच्छे सोति-ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर मैथिली भाषा, संस्कृति। तहिना साहित्य कथा कि कविता कि उपन्यास कि नाटके नहि। ई सभटा समस्त मिथिलांचलक एक जातीय सांस्कृतिक समग्रता तथा लोक गरिमा, मानवीय गुणवत्ता, जीवनमूल्यक दबाबमे करैत रचनाकार-विचारकक संघर्ष आ’ तकरे आदर्शोन्मुख अभिव्यक्त्तिमे युग-यथार्थ बनैत अछि। सद्यः उपलब्ध मैथिलीक एहन ऐतिहासिक अवसरक उपयोग सोचै जाइ- उपभोग नहि। दरभंगा बनाम सहरसा बना क’ मैथिलीक रजिस्ट्री-बन्दोबस्त नहि करबै जाइ जाय।

॥ किछु एहनो बात विषय॥

यद्यपि एहि बात –‘सगर राति दीप जरय’ पर हम सिद्धांततः प्रभासजीसँ सहमत नहि रहलौँ, परन्तु एम्हर पछिला दशकमे ई तिमाही-कथा गोष्ठी- ‘सगर राति दीप जरय’- आजुक मैथिली कथा-विधामे की योगदान कएलक अछि, से तथ्य आब इतिहासमे दर्ज अछि। ई बात सही छैक जे एहन कोनो कार्य कोनो एक गोटेक नहि होइछ। मुदा सभ वर्त्तमानकेँ ओहि एक संस्थापना-कल्पक व्यक्त्ति-लेखककेँ अवसरोचित रूपेँ कृतज्ञतासँ स्मरण अवश्य कयल जयबाक चाही। से लेखकीय नैतिकता थिक। आ’ हमरा जनतबे, से रहथि- स्व. प्रभास कुमार चौधरी।
हमरा तखन दुखद निराशा भेल जखन एहि बेरक मैथिली साहित्य अकादेमी पुरस्कार पओनिहार प्रदीप बिहारीजी साहित्य अकादेमी-सभागारमे लेखक-सम्मिलन-अवसर पर अपना वक्तव्यमे सगर राति दीप्प जरयक उपलब्धिक चर्चा तँ कएलन्हि, मुदा स्व. प्रभास जीक नामोल्लेखो नहि कयलखिन। एकरा हम साधारण घटना नहि मानि सकैत छी। गंभीर बात बुझैत छी। कारण हमरा लोकनि रचनाकार छी। औसत कोटिक कोनो राजनीतिक नहि। संभव हो नाम अनावधानतामे छूटि गेल होनि। मुदा हमरा सभ लेखक छी तेँ एहन असावधानी करबा लेल स्वाधीन नहि छी। यद्यपि अपन खेद हम हुनका प्रकट कयलियनि।
हमरा लगैये जे अपन-अपन सकारात्मक इतिहासक प्रति सभ पीढ़ीक मनमे कृतज्ञताक भाव अंततः लेखकक ऊर्जा आ’ प्रेरणे बनैत रहैत छैक। बतौर कवि हम मैथिलीमे जाहि काल-बिन्दु पर ठाढ छी, तकर जड़ि विद्यापतिसँ ल’ सुमन-किरण-मधुप- आ यात्रीएमे। ई सोचि क’ मन कृतज्ञ होइत अछि! बल्कि गौरांवित। ओना, एकटा लेखक रूपमे हम एहिमे सँ क्यो नहि छी। जेना सभ, सभक कारयित्री प्रस्थान छथि, तहिना हमहुँ नागार्जुन-यात्रीक कारयात्री प्रस्थान छी। आ’ ई भाव हमरा रचनाकर्ममे अग्रसर करबाक उत्तरदायित्व द’ गेलय।
तर्पण तिल-कुश –अंजलि बला कर्मकाण्डकेँ तँ हम नहि मानैत छी, मुदा पुरखाक तर्पण हमरा प्रिय अछि। अपना शैलीमे। अपन जीवन-मूल्यक एकटा अभिन्न तत्त्व बुझाइत अछि।
तकर बाट की हो? अवसर पर कृतज्ञ स्मृति! अवसर पर- तिथि पर नहि।(साभार विदेह www.videha.co.in)

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